Saturday, September 20, 2008

विज्ञापन की थीम यानी वॉट एन आइडिया सरजी...

फ़िल्में समाज का आईना होती हैं। ये वाक्य उतना ही घिस चुका हैं जितना कि कोई और फ़िल्मी डायलॉग। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि विज्ञापन भी आपको समाज की या आपकी ख़ुद की विभत्स और लापरवाह तस्वीर दिखा जाते हैं। महज 30 या 40 सेंकंड में कुछ ऐसा बोल जाते हैं जो बाद में घंटों तक दिमाग में हथौड़े की तरह लगता रहता हैं।
कल एक विज्ञापन देखा जिसमें दो लड़के एक सिनेमा हॉल के आगे खड़े लोगों को चाय पिला रहे हैं। वो लगातार कह रहे हैं - अरे भाई साहब को चाय दो ये सो रहे हैं। अरे इन्हें भी चाय की ज़रूरत हैं। अरे ये भी सो रहे हैं। तभी एक लड़की उनसे कहती है कि आज छुट्टी है और हम फ़िल्म देखने आए हैं। लड़के कहते हैं ये भी सो रही हैं। इन्हें भी चाय की ज़रूरत हैं। लड़की झल्लाकर कहती हैं हम जाग रहे हैं, वी आर नॉट स्लीपिंग। लड़का जवाब देता है आज चुनाव है और अगर आप वोट डालने नहीं गए हैं, तो इसका मतलब है आप सो रहे हैं...
विज्ञापन कुछ सेंकंड में दिमाग की सारी नसें कुलबुला जाता है। लेकिन, ये तो महज उदाहरण है। आइडिया का कुर्मी थुमियार विज्ञापन हो या इस वक़्त चल रहा एक स्कूल विज्ञापन सभी हमें हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी की ओर ले जा रहे हैं।


कई विज्ञापन दर्शाते है बदलते हुए समाज को। बेटे और पिता का संबंध एक बहुत धीर-गंभीर संबंध माना जाता है। अधिकतर बेटा पिता से अपनी कोई भी बात माँ के ज़रिए कहता है। ऐसे में आजकल आ रहे लाइफ़ इन्शोरेन्स के विज्ञापन इसी संबंध की मधुरता को जीवंत कर रहे हैं। ऐसे ही एक विज्ञापन की टेग लाइन है ना सर झुका है कभी और ना झुकाएंगे कभी.... इस सीरिज़ के सभी विज्ञापन बढ़िया हैं। लेकिन, सबसे बेहतरीन लगता है वो विज्ञापन जिसमें बेटी पापा से कहती है कि चांद पर जाने के लिए टिकिट के पैसे राजू मामा से लेगें उनके पास बहुत पैसा है। और, जवाब में पिता बेटी से कहता है कि जब तक आप जाओगें हम इतने पैसे जमाकर लेगें। विज्ञापन छोटा है लेकिन, असल बात ये है कि पिता के आत्म सम्मान को इस बात से कोई ठेस नहीं पहुंची कि बेटी मामा से यानी कि उसके साले से पैसे की मांग करना चाहती हैं। वो अपनी पत्नी की ओर देखकर मुस्कुराता है और फिर बेटी को समझाता है। नहीं तो कोई अगर ऐसा घर में कह दें तो आत्म सम्मान के नाम पर पति-पत्नी झगड़ भी सकते हैं। ये विज्ञापन आईना है हमारे समाज का, उसके बदलते हुए रूप का, हमारी बदलती विचार धारा का...
अंत में - कई विज्ञापन ऐसे भी हैं जो फूहड़ता ही हद को भी पार कर चुके हैं। लेकिन, उन पर बात कभी और....

4 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छे विज्ञापनों का जिक्र किया है आप ने...सधी हुई सरल भाषा में पते की बात की है.
नीरज

PD said...

Kuchh adds kafi innovative hote hain to kuchh behad foohad..
sahi kaha aapne..

कुश said...

bahut umda soch hai aapki.. i m really impressed

Udan Tashtari said...

बहुत सही कहा आपने!!