Thursday, September 25, 2008

शहरी बंदर: इंसानों को जीना सिखाते...

दिल्ली शहर की ऊंची-ऊंची नई-पुरानी इमारतों में इंसानों के साथ कोई और भी रहते हैं। हमारे पूर्वजों ने अब हमारे साथ रहने का फैसला कर लिया है, यही वजह है कि शहर में बंदरों की तादाद बढ़ती जा रही हैं।

एक इमारत से दूसरी इमारत पर झूलते, बिजली के तारों को पेड़ों की डालियाँ मानकर लटकते ये बंदर अब शहर का एक हिस्सा बन गए हैं। लोगों के खाने से अपना हिस्सा मांगते, छीनते इन बंदरों ने अब शहर को ही अपना घर मान लिया है। लेकिन, आखिर ऐसी कौन-सी मज़बूरी थी जो इन बंदरों को शहरों की ओर ले आई? जंगलों में रहनेवाले इन जानवरों के घर को इंसानों ने ही उजाड़ दिया, और ख़ुद को ज़िंदा रखने की ज़िद ले आई इन्हें शहरी जंगलों में। आज ये बंदर रह रहे हैं इंसानों से बजबजाते इस इमारतों के जंगलों में। लेकिन, अब ये बंदर कहीं और जाना भी नहीं चाहते हैं। कई बार सरकार ने इन्हें आसपास के जंगलों में छोड़ने की कोशिशें की। लेकिन, ये बंदर वापस यहीं आ जाते हैं। अपने पेट से अपने बच्चे को चिपकाए बंदरिया कभी इस बिल्डिंग पर बैठती है तो कभी उस बिल्डिंग पर। बंदरों की नई नस्ल तो इसी इमारती जंगल को अपना आशियाना मान लिया हैं। ये इमारतें, ये बिजली के तार ही उनके लिए खेल के साधन है। लेकिन, इसी तेज़ रफ़्तार शहर ने ना जाने कितनों को वक़्त से पहले मार दिया हैं। जिन तारों पर ये खेलते हैं कई बार वहीं तार इन्हें मौत की गोद में सुला आते हैं। सड़क पार करते वक़्त ना जाने कितने बंदर गाड़ियों के नीचे कुचले जाते हैं। बावजूद इस सबके इन बंदरों ने शहरों के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल लिया हैं।


यहाँ के रहन-सहन, खाने पीने और तौर तरीक़ों को अपना कर बंदर इंसानों को विपरीत परिस्थिति मे भी ज़िंदगी कैसे जी जाती है ये सीखा रहे हैं...

3 comments:

manvinder bhimber said...

bahut khoob...achcha likha hai

Anonymous said...

bhuwan its good ... really touching thing.... sabko tumhari itni deep baat se seekh leni chahiye... keep it up ....

Anonymous said...

achach likha hai...
..rajesh