Saturday, September 13, 2008

मॉल की डिज़िटल चमक-दमक और साप्ताहिक बाज़ारों की कंडिल...

दिल्ली तरक्की कर रही है। विश्व स्तर की नगरी बनने ही वाली है। इसकी तरक्की का अंदाज़ा लगाया जाता है - मैट्रो से, फ्लाई ओवर से और लगभग हर इलाक़े में मौज़ूद शॉपिंग मॉल्स से। ये शॉपिंग मॉल ना सिर्फ़ दिल्ली की तरक्क़ी दिखाते हैं बल्कि, महानगरीय जनता की खरीदने की क्षमता भी दिखाते हैं।


ये भूमिका इसलिए कि मैं जो बिहार के एक छोटे से शहर से निकला हूँ अक्सर इन मॉल्स में जाता हूँ। ऊंची और बड़ी इमारतों में शीशों के दरवाज़ों के अंदर चमकती दुकानें... गेट पर तलाशी लेते गार्ड... फिर सेन्ट्रलाइज़ड एसी दुकानों में कपड़े-लत्ते और तरह-तरह की चीज़ों को देखकर चुंधियाती मेरी आंखें...
इन सब को देखकर लगता है, कि ये कोई और ही दुनिया है। यहाँ घूमने के लिए कपड़े विदेशी और अंग्रेज़ी पुट की हिन्दी ज़रूरी होती हैं। यहाँ हाथों में हाथ डाले प्रेमी-युगल और नवविवाहित घूमते दिखाई दे जाते हैं। खाने-पीने के लिए यहाँ फास्ट-फूड कॉर्नर मौजूद है, जहाँ एक बार अगर ठंडा पी लिया तो, हफ्ते भर 50 पैसे में मिलनेवाले पानी को पीने के लिए भी सोचना पड़ता है।


इसी दिल्ली शहर में एक दुनिया और है। इस दुनिया में 50 रुपए में शर्ट और 100 रुपए में जूते मिलते हैं। वो भी ऐसे वैसे नहीं नाईकी और एडीडास को टक्कर देनेवाले। ये है मेरे मोहल्ले का साप्ताहिक बाज़ार। यहाँ जुटनेवाली भीड़ मॉल की क्राऊड का दुगना होती हैं। इतनी कि आप तब तक आगे बढ़ सकते हैं, जब सामनेवाला नहीं चलता। यहाँ आते है, वो लोग जो हर हफ्ते के हिसाब कुछ 100-50 रुपए कमाते है। यहाँ उन्हें अपने काम की हर चीज़ मिल जाती हैं। कपड़े, बरतन, झाडू, ताला-चाभी यहाँ तक कि अचार-मुरब्बे भी। यहाँ भी प्रेमी-युगल और नवविवाहित नज़र आते हैं, लेकिन उनके हाथों में हाथ नहीं, बल्कि हफ्ते भर के सामान से भरे बैग होते हैं। यहाँ खाने-पीने का भी पूरा बंदोबस्त होता है। छोले-भटूरे, चाट, पकौड़े... और चाऊमिन तो ऐसा कि कोई चाइनिज़ भी ना बना पाए। हाँ एक बात है, यहाँ खाने के लिए कुछ घर से खाकर आना पड़ता है, क्योंकि खाने के लिए यहाँ होनेवाली मारा-मारी के लिए ताक़त भी ज़रूरी है। ये साप्ताहिक बाज़ार ना सिर्फ़ यहाँ आनेवाले लोगों और सामानों से दिलचस्प है बल्कि इनके नाम भी अनोखे हैं। मेरे इलाके में ये बाज़ार बुधवार को लगता है तो हो गया - बुध बाज़ार। वहीं जहाँ शनिवार को लगा हो गया शनि बाज़ार और जहाँ मंगलवार को लगा हो गया मंगल बाज़ार...
मैं हर हफ्ते वक़्त निकालकर अपने मोहल्ले में लगनेवाले बुध बाज़ार में जाता हूँ। अक़्सर मुझे कुछ खरीदना नहीं होता है, बस जाता हूँ कि इसी बहाने इस अंजान शहर के अकेलेपन में कुछ मेरे जैसे मिल जाएंगे....

1 comment:

Anonymous said...

ACHCHA LEKH LIKHA HAI..