Tuesday, October 21, 2008

बदलती नीयतें...

बस में सवारी करते वक़्त अगर आप खड़े हो तो सीट पर बैठे इंसान से आप कुछ दयनीय महसूस करते है। ठूंसी हुई बस में लटके हुए कुछ यूं महसूस होता है कि बैठे हुए के कि पास ही तक़दीर है, कब ये उठे और वो सीट रूपी तक़दीर हमारी हो जाए। वही अगर बस में आप बैठे हो, तो लगता है कि क्यों लोग चढ़े जा रहे हैं, बस में खड़े होने की तो जगह है नहीं और ये लोग जो चढ़ेगें तो सर पर ही चढ़कर खड़े हो जाएंगे। भगवान करें कि स्टॉप पर बस रुके ही न।


ऐसा ही कुछ हो रहा है इस वक़्त मराठी वर्सेस उत्तर भारतीय के मामले में। इस वक़्त मराठी बस में बैठे हुए है और उत्तर भारतीय खड़े हुए हैं। लेकिन, एक बात जो दोनों के बीच एक है वो है उनका ठोर। आखिर, जब एक बस के में चढ़े है तो एक रास्ते ही जाना होगा। कल लोकसभा टीवी पर इसी मुद्दे पर बहस छिड़ी थी। कई बातें समाने आई जैसे कि - स्थानीयों को आरक्षण मिलना चाहिए और उसके लिए ये तय भी किया गया है कि कुछ परीक्षाएं स्थानीय भाषा में ही ली जा रही हैं। साथ ही ये भी कहा गया कि भारत में हर व्यक्ति को ये अधिकार है कि वो देश के किसी भी हिस्से में रह सकता हैं। फिर एक मराठी सज्जन का फोन आया और उन्होंने कहा कि उत्तर भारतीय जनता नहीं उन नेताओं की पिटाई होनी चाहिए जिन्होंने क्षेत्र का विकास नहीं किया। लेकिन, क्या एक नेता दूसरे नेता का किसी सकारात्मक बात पर विरोध करेगा। इसी बीच एक समाजशास्त्री से ये सवाल किया गया कि आखिर ये क्षेत्रवाद की भावना हिन्दीभाषियों में क्यों नहीं होती। और भी कई बातें हुई। तब ही एक बहस हम देखनेवालों के बीच भी छिड़ गई कि आखिर क्यों मराठी, बंगाली या दक्षिण भारतीय ही अपनी भाषा के प्रति इतने भावुक होते हैं। कई बार ये देखा है कि मराठी नेता जय भारत के साथ, जय महाराष्ट्र भी बोलते हैं। बल्कि मध्य प्रदेश में मैंने ये कभी नहीं देखा। बात यहां अंत ये हुआ कि इन सभी भाषाओं की अपनी एक लिपि है, उसी ये सभी पढ़ते हैं, लिखते है, ख़ुद को व्यक्त करते हैं। लेकिन, हिन्दी भाषी कही बीच में रह जाते है। हम घर में मालवी, निमाड़ी, ब्रज, भोजपुरी या मैथिली में बात करते हैं और पढ़ते लिखते हैं हिन्दी या अंग्रेजी में। जिसके चलते हम किसी विशेष भाषा से नहीं जुड़ पाते हैं और यही सकारात्मक कुछ यूँ हो जाता है कि हर भाषा के लिए समान सम्मान। इसके बाद बहस छिड़ी क्षेत्रवाद पर। एक बिहारी मित्र ने असम की घटना का जिक्र किया कि कैसे असम में बिहारियों को पीटा गया था और उसके प्रतिशोध में बिहार के एक रेल्वे स्टेशन पर असम जाती ट्रेन को रोका गया था और उसमें बैठे लोगों पर हमला किया गया था। इस घटना के साथ साथी ने ये भी बताया कि महाराष्ट्र से इस तरह का कोई नाता नहीं है बिहार से इसलिए। नहीं तो अब तक शायद ऐसा कुछ हो चुका होता। बात वही आ जाती है कि बॉल किसके कोर्ट में है। जिसके कोर्ट में बॉल होगी वही शॉट मारेगा। इन बातों को पत्रकारिता व्यवसाय के ज़रिए भी समझा जा सकता हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान ही कई बार ऐसा होता था कि मैं ख़ुद आउट ऑफ़ स्पेस महसूस करती थी। क्लास में ज़्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश के साथी। छठ को मैं नहीं जानती थी, दही चुड़ा जन्म से कभी नहीं खाया, वो बोलियाँ पहली बार सुनी। कई बार लगता था मैं कभी इन में घुल नहीं सकती हैं। बातों-बातों में ये भी होता था कि भोपाल की बुराई कर दी जाती थी और भोपाली बोली का मज़ाक भी उड़ा दिया जाता था। बुरा लगता था, कई बार दोस्तों के बीच से उठ गई, अलग हो गई। लेकिन, जब आज हम सभी दिल्ली में है तो कई बार उन्हीं दोस्तों के मुंह से ये सुनती हूँ कि भोपाल की बहुत याद आती है, बहुत अच्छा शहर है या फिर कई बार ये सुनती हूँ कि ऑफ़िस में पंजाबियों की लॉबी है, यार बहुत अलग अकेला महसूस होता है। मन ही मन हंसी आ जाती है। लगता है जब ख़ुद के साथ होता है तब ही पता लगता है।
हम सभी हरेक परिस्थिति से गुज़र चुके इंसान हैं, हम सभी कभी किसी गुट का हिस्सा तो कभी अकेले रह चुके हैं। लेकिन, फिर भी जब हम एक परिस्थिति में होते हैं, दूसरी को समझने से इंकार कर देते हैं।

3 comments:

Anonymous said...

likha to achcha hai dipti jee... lekin kabhi bus se bahar bhi nikaliye...

Anonymous said...
This comment has been removed by a blog administrator.
Anonymous said...

good