Wednesday, March 4, 2009

भटकने के लिए भी जगह नहीं...

मेरे इस लिखे को पोस्ट करने पहले मैंने बार-बार सोचा कि इसे पोस्ट करूं या नहीं। लेकिन, डीलीट करने का मन नहीं हुआ सो पोस्ट कर रही हूँ।

17 फ़रवरी को मैंने लूज़ शंटिंग पर अपनी अंजान दोस्त के बारे में लिखा था। आज 4 मार्च है। एक लम्बे अंतराल के बाद आज फिर कुछ लिखने का वक़्त मिला है। ऐसा नहीं है कि इस बीच कोई विचार मन में नहीं कुलबुला या फिर कोई बात मन को छूकर नहीं गई। बस वक़्त नहीं मिला। रोज़ाना रात सोते वक़्त मन में एक बार ये ख्याल आता है कि दीप्ति क्या तुम्हारे पास खुद के लिए समय है? लेकिन, दिक्कत ये है कि जवाब सुनने से पहले ही थकी हुई दीप्ति सो जाती है। ऑफ़िस की भाग दौड़, रोज़ाना 13 से 14 घंटे का काम, बस में पायदान पर लटककर जाना, रूम पर पहुंचते से ही एकदम अकेले हो जाना, और न जाने क्या-क्या। 25 साल की उम्र में ज़िंदगी थकी हुई-सी लगने लगी है। ऐसा नहीं कि इस दौरान ताज़ा होने का मौक़ा न मिला हो। पिछले ही हफ़्ते भोपाल से लौटी हूँ, यूनिवर्सिटी से दीक्षा लेकर। लेकिन, वो दो दिन भी ऐसे भागम भाग में गुज़रे कि पता ही नहीं चला कब गई कब आई। न तो कॉलेज और पुरानी यादों से ठीक से दो चार हो पाई, न ही घर पर मम्मी पापा और भैया से स्थिर से बातें कर पाई। ऐसा लगा कि ज़िंदगी के कुछ दिन फ़ास्ट फॉर्वड में चल दिए। मन पर हमेशा एक उदासी सी छाई रहती है। ख़ुद से नाराज़गी इतनी बढ़ चुकी है कि बिना वजह लोगों से नाराज़ हो जाती हूँ। जानती हूँ गलत है लेकिन, मन का तनाव कम करने का कोई रास्ता ही नज़र नहीं आ रहा है। मम्मी या पापा ने अगर पूछ भी लिया कि तबीयत कैसी है, मैं जवाब देती हूँ बस ज़िंदा हूँ। वो पूछते हैं कोई परेशानी है बेटा? बताओ हमें। मैं झल्ला जाती हूँ। ये कहकर कि बाद में फोन करूंगी, फोन रख देती हूँ। ये जानती हूँ कि मेरे इस जवाब से वो कितना परेशान होंगे। कभी-कभी बिना बात के आंसू आ जाते हैं। दोस्त अगर रूम पर आते हैं तो लगता है कब ये जाएंगे। ऐसे में बस मौसम फ़िल्म का दिल ढूढ़ता है फिर वही गाना ही बार-बार दिमाग में चलता रहता है। शायद मैं तनाव में हूँ। शायद मुझे आराम की ज़रूरत हैं। शायद मुझे बदलाव की ज़रूरत है। यक़ीनन इनमें से मुझे कुछ नहीं मिलेगा।

5 comments:

अजित वडनेरकर said...

जवाब इसी पोस्ट में छुपे हैं...
सबसे बड़ी बात है धैर्य...वह तो हर हाल में चाहिए...:)

Unknown said...

दीप्ति जी जिंदगी में ऐसे कई मोड़ आते हैं जहां अकेलापन ही जंचता है । पर ऐसे में अपने कुछ खास और परिवार की मदद से उबरा जा सकता है ।

विजय तिवारी " किसलय " said...

दीप्ति जी
नमस्कार
आपने सही किया , अपना दर्द हमसे शेयर किया, सच मानिये
आज की भागमभाग में आप जैसे हम भी हैं और बहुत से और भी हैं.
शायद हम चाहते हुए भी संतोष और सीमितता के आदी नहीं रह गए हैं.
काश हम एक छोटी सी दुनिया में सिमट जाते जहां सिवाय अपनों के कोई गैर न होता .
- विजय

अनिल कान्त said...

ये बिलकुल सच है कि भागम भाग कि ज़िन्दगी में जीवन का रस चला जाता है .....अगर खुद को कुछ पल फुर्सत के न मिले तो दिल उदास....दिमाग और मन चिडचिडा हो जाता है .........तनाव भी पैदा होता है ..........मेरी मनो तो अपने ख़ास दोस्त से बातें करो कुछ शेयर करो ....अपने मन का कुछ करो ...pasandeeda gane suno या कुछ भी जो तुम्हे अच्छा लगता हो

Udan Tashtari said...

एक दौर है ये भी,
गुजर जायेगा...

--शुभकामनाऐं.