Thursday, March 5, 2009

बस यादें रह जाती हैं...

.. और भुवन कैसे हो... वो लपक कर आगे आए और मेरी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया। उनके मुंह से अपना नाम सुन कर मैं हतप्रभ था। मैं आगे बढ़ा और उन्हें गले से लगा लिया। ये वो चाय वाले भैया थे जिनकी दुकान भोपाल के सात नंबर स्टॉप मंदिर के बगल में है। माखनलाल में पढ़ाई के दौरान मैं और मेरे दोस्त क्लास के बाद अक्सर वह बैठे रहते थे। सूखे नाले पर बनी पुलिया.... और वो चाय पर चाय के दौर। कभी-कभी सिगरेट भी चला करती थी। भैया हमेशा सिगरेट देने से पहले मुझसे कहते मत पिया करो.. सिगरेट के साथ तुम अच्छे नहीं लगते.... मैं बस मुस्कुरा देता।

वो पुराने दिन मेरी आंखों के सामने घूम गया। लगा कि मैं चार साल पीछे चला गया हूँ। सब कुछ वैसा कि वैसा ही है। वही भोपाल, वही सात नंबर, वही चाय की दुकान। करीब दो साल से ज्यादा हो गए थे भोपाल गए... जब से ख़बर मिली थी की दीक्षांत समारोह की तारीख तय हो गई तब से ही ठान लिया था की भोपाल जाना है। ऑफिस से छुट्टी ली और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ ली। साथ में तीन दोस्तों का भी रिज़र्वेशन था। लेकिन ट्रेन में तो जैसे पूरा माखनलाल ही उमड़ पड़ा हो। हर बोगी में अपने कॉलेज के साथी मौजूद थे। हँसते-गाते मस्ती करते कब पहुंच गए पता ही नहीं लगा। हबीबगंज पर उतरते ही सब के सब हकीम भाई की चाय की दुकान पहुँच गए। थोड़ी मस्ती और हँसी मजाक के बाद अपने अपने ठिकानों पर गए और घंटे दो घंटे के बाद फिर कॉलेज में... पुराने टीचर्स और कॉलेज स्टाफ़ से मिल कर काफी ख़ुशी हो रही थी। शाम में सब समन्वय भवन में जमा हुए. डिग्री लेने के लिए गाउन पहने हम सब काफी खुश थे. कैमरे के फ्लैश लगातार चमक रहे थे. दूसरे दिन मैंने भारत भवन जाने का सोच रखा था। मै और कुछ दोस्त निकल पड़े, पहले बड़ी झील गए। देखकर बहुत अफ़सोस हुआ. झील सिमटती जा रही है.. हालत ये है की लोग पैदल ही झील के बीचो बीच मौजूद दरगाह तक चले जा रहे है। फिर पुराने दिनों की तरह सभी दोस्त फक्कड़ों की तरह पैदल ही भारत भवन के रास्ते चल दिए। अंतरंग में तो नहीं जा सके.. लेकिन बहिरंग की सीढि़यों पर बैठ कर काफी समय बिताया। कुछ तस्वीरें खिचवाई, कैंटीन में चाय पी और फिर श्यामला हिल्स की पहाड़ियों से पैदल-पैदल पोलेटेक्निक तक आ गए। शाम में एक बार फिर सभी इक्कठा हुए। हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर। लेकिन, इस बार एक मायूसी साथ थी। वापसी की ट्रेन जो पकड़नी थी। याद आ रहे थे वो दिन तब एक होली या दिवाली के घर जाते थे। मन में घर जाने की खुशी के साथ-साथ कुछ दिनों बाद वापस इसी स्टेशन पर मिलने की खुशी भी रहती थी। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं था। नौ पाँच हुए और ट्रेन खुल गई। मैं भोपाल को विदा बोल दिल्ली के लिए चल पड़ा। भोपाल के दुबारा छूटने की कसक लिए मैं वापस चला आया इस दिल्ली को......

2 comments:

Unknown said...

जिन्दगी के सफ़र में यादें तो बहुत होती हैं लेकिन कुछ यादें खास होती हैं .......जिन्हें भूल पाना बहुत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी होता है .....

manish shukla said...

bhuwan jee.....
apka dil ko chu lene wala lekh ko pada aur mahsoos kiya.............u know kuch line padne ke baad main bhopal main tha aisa laga..................nind tab tuti job mere mob ki ghanti baji.