Saturday, September 5, 2009

चतरी चाचियाँ...

वो दोनों शायद दिल्ली की ही रहनेवालियाँ हैं। मुझे पूरी तरह मालूम नहीं। अगर ना भी हो तो इतने सालों से यहाँ रहते हुए दिल्लीवालियाँ बन ही चुकी थी। दोनों ही किसी सरकारी दफ़्तर में पिछले बीस बाइस सालों से काम कर रही थी। सरकारी कामकाज़ में वो कितनी कुशल है इस बारे में मेरी जानकारी नगण्य है। लेकिन, बस के सफर में वो एकदम पर्फे़क्ट हैं। दोनों ही बस में लगभग एक ही वक़्त पर बस में चढ़ती थी घर से आते वक़्त भी और जाते वक़्त भी। आने में तो उनको कुछ ख़ास परेशानी नहीं होती होगी क्योंकि बस उनके स्टॉप से ही प्रस्थान करती थी। लेकिन, आते वक़्त उन्हें परेशानी हो जाती थी क्योंकि उनके स्टॉप पहुंचते-पहुंचते बस भर जाती थी। लेकिन, इन चाचियाँ भी कोई कच्ची खिलाड़ी नहीं थी। दोनों बस में चढ़ते ही अपनी गिद्ध-सी आँखों से सीटों को देखती। महिला सीट पर बैठे पुरुष तो उन्हें देखते ही सहम जाते थे। लेकिन, अगर महिला सीट भरी भी हुई तो कोई परेशानी नहीं। विकलांग या फिर वृद्द सीट पर बैठे सामान्य यात्री या फिर सामान्य सीट पर बैठे सामान्य यात्री (यहाँ यात्री को नौजवान पुरुष पढ़े) कोई भी उनका निशाना बन सकते थे। चाचियाँ दुखी-सी, बीमार शक्ल बनाकर खड़ी हो जाती थी। फिर शुरुआत होती थी तीरों के छूटने की।
बेटा सीट दे दोगे...
तबीयत ठीक नहीं है...
पैरों में लगातार दर्द होता है...
बेटा आप तो जवान हो...

सामनेवाला चाचियों के चतरेपन से अंजान सीट छोड़ देते है। चाचियाँ सीट पर फैलेकर बैठ जाती हैं। आपस में चकचर-चकचर शुरु हो जाती हैं। थोड़ी ही देर में उन्हें आसपास खड़े वही यात्री जिन्होंने उन्हें बैठने को सीट दी थी हीन मालूम होते हैं। वो उन्हें हीराकत भरी नज़र से देखती हैं और कहती हैं ठीक से खड़े हो। चाचियों के चतरेपन की हद तो तब है जब वो किसी यात्री का सामान भी ना पकड़े। चाचियाँ सात की जगह पाँच का टिकिट लेकर शान से सफर पूरा करती हैं और अपने स्टॉप पर शान से उतरती हैं...

5 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

सामनेवाला चाचियों के चतरेपन से अंजान सीट छोड़ देते है। चाचियाँ सीट पर फैलेकर बैठ जाती हैं। आपस में चकचर-चकचर शुरु हो जाती हैं। थोड़ी ही देर में उन्हें आसपास खड़े वही यात्री जिन्होंने उन्हें बैठने को सीट दी थी हीन मालूम होते हैं। वो उन्हें हीराकत भरी नज़र से देखती हैं और कहती हैं ठीक से खड़े हो। चाचियों के चतरेपन की हद तो तब है जब वो किसी यात्री का सामान भी ना पकड़े। चाचियाँ सात की जगह पाँच का टिकिट लेकर शान से सफर पूरा करती हैं और अपने स्टॉप पर शान से उतरती हैं...


bahut sahi chitran....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

Dipti jee..... aapko bata doon..... ki aapka ek lekh aajke amar ujala akhbaar mein mere blog ke saath parmukhta ke saath sampadkiya page par chaapaa hai..... apka blog hai koi ''nazar badal dein , nazariya badal jayega" wo hi chapaa hai..... ittefaq se apka blog dikha hai mujhe to socha ki aapko bata doon....


Regards.....

www.lekhnee.blogspot.com

राज भाटिय़ा said...

बेचारी चाची.... घर मै चाचा का क्या हाल होगा जिन के गले यह पडी है:)
आप ने लेख बहुत सुंदर लिखा है ,
धन्यवाद

पंकज कुमार झा. said...

दीप्ति बहुत शानदार लिखा है आपने...अच्छा लगा पढ़ कर. बिल्कुल नया कोण है ये तो.
खैर, मैं अपने आलेख पर आपकी टिप्पणी के लिये भी धन्यवाद कहना चाहता था लेकिन आपका संपर्क सूत्र पता नहीं चला....धन्यवाद.
सादर/जयराम दास.
jay7feb@gmail.com

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

यही तो फायदे हैं महिला होने के।
बधाई।