Friday, March 5, 2010

मूक शहर...

अपनों से दूरी का अहसास हमेशा मन में बना रहता है। लेकिन, अपने अंचल से दूरी का अहसास कभी-कभी और बहुत पीड़ादायी होता है। मेरा ये मानना इसलिए क्योंकि जो अपने दूर है वो उनसे बात करके उस ग़म को कुछ कम किया जा सकता है लेकिन, अंचल को तो वहाँ जाकर, वहाँ रहकर ही महसूस किया जा सकता है। आज सुबह जब ब्लॉगवाणी खोला तो दिखाई दी रंगपंचमी पर एक पोस्ट। पढ़कर खुशी हुई लेकिन, अफ़सोस भी कि आज के इस रंगीन और ख़ूबसूरत दिन की याद मुझे आई ही नहीं। मालवा और निमाड़ का ये त्यौहार होली के रंगों को भी पीछे छोड़ देता हैं। वहाँ ऐसे कई लोग मिल जाएंगें जो होली के दिन रंग नहीं खेलते लेकिन, रंगपंचमी के दिन किसी को छोड़ते भी नहीं हैं। मेरे दोस्तों के बीच में इस त्यौहार का कई बार ज़िक्र कर चुकी हूँ। लेकिन, इस त्यौहार की सारी चमक बस मेरे ही चेहरे तक सीमित रहती है किसी ओर के चेहरे पर मैंने इस उल्लास को नहीं देखा। हम आगे बढ़ने की होड़ में शामिल होकर दूर तो निकल आते हैं लेकिन, मन में बंधी अपनों की डोर बहुत खोलने पर भी नहीं खुलती। मेरी माँ की तरह मेरे शहर ने कभी इस बात की शिकायत नहीं कि क्यों मेरी बेटी बिना ब्याहे ही पराई हो गई। अगर शहरों के भी इंसानों की तरह दिल धड़कतें तो शायद वो भी हम जैसे उन्हें छोड़कर जानेवालों से शिकायत करते कि ऐसा कौन सा बैर जो मुझे अकेला कर गए...

4 comments:

Bhuwan said...

अच्छी पोस्ट
इंसान चाहे कही चला जाए..अपने काम में कितना भी व्यस्त क्यो ना रहे लेकिन कुछ खास मौकों पर उसे अपनी मिट्टी की याद और उससे दूर होने की टीस ज़रूर होती है. आंचलिक पर्व त्योहारों पर ये और बलवती हो जाती है. लेकिन इसमे एक और बात होती है.. वो ये की आपकी इस टीस को आपके इलाक़े का ही कोई समझ सकता है ये मेरा निजी अनुभव है.

शरद कोकास said...

अच्छा लगा यह पढ़कर

Aadarsh Rathore said...

मासूमियत है इस पीड़ा में.....

what say said...

pichli bar jab rangh panchami par aapka post padha,achchaa laga tha,.. shayad voh pehli bar tha jab mene aapka blog padha. aur aaj yeh nayi post padhi.. yani takariban 1 sal se aapke post padh rahi hun...
achcha likhti ho aap
keep it up.