Wednesday, April 13, 2011

जब साइकल से नापा दिल्ली को...

कई बार ऐसा होता है कि नौकरी करते-करते एक ऐसा वक़्त आ जाता है कि हम कुछ नए की तलाश में लग जाते हैं। वही कुछ ना मिल सकें तो कही और खोजना शुरु कर देते है। परिवर्तन की चाह स्थाई भाव की तरह हमारे साथ चिपका रहता है। लेकिन, मैं हमेशा से यथास्थिति को बनाएं रखने में यक़ीन रखती हूँ। जो जैसा है वैसा ही रहे कुछ ना बदले। जैसे ही कुछ बदलाव होते हैं मैं बैचैन होने लगती हूँ। दरअसल ये मेरे अंदर का डर और आत्मविश्वास की कमी है जोकि मुझे परिवर्तन के प्रति पहले से ही डरा देती हैं। खैर, नौकरी के मामले में मेरी राय बदलाव न होने के मामले में कुछ ज्यादा है। लेकिन, न चाहते हुए भी हर बार, हर नए हफ्ते में किसी नई परिस्थिति में पड़ जाती हूँ। मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम सुर्खियों से परे के लिए मुझे ऐसी-ऐसी ख़बरें खोजनी और करनी पड़ती है जो मुझे कुछ नया अनुभव मुफ्त ही दे जाती है। कभी मुझे संसद भवन की रखवाली में लगे लंगूर से हाथ मिलाने पड़ता है, तो कभी गधों के लिए काम करनेवाले अंग्रेज़ जोड़े के साथ घूमना और कभी तो कपड़ों की धुलाई के नए तरीक़ों की छानबीन करनी पड़ जाती हैं। कइयों को लगता है कि मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसे मौक़े मिलते हैं लेकिन, मुझ जैसी आलसी के लिए ये मौक़े बहुत ही भारी होते हैं। और, आसली होने के बावजूद मेरे कामचोर न होने की वजह से हर बार ऐसी स्टोरी से मुझे दो चार होना ही पड़ता हैं। बात कुछ 15 दिन पहले की है जब मुझे डेल्ही बाय सायकल के बारे में जानकारी हुई। कुछ विदेशी जो कुछ साल से दिल्ली में रह रहे हैं, दिल्ली की सैर करवाते हैं। सैर का तरीक़ा ऐसा जो कोई भी पारंपरिक भारतीय पर्यटक कभी ना अपनाएं। साइकल पर सवार होकर ये लोग पर्यटकों को दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों की सैर करवाते है। जैसे कि पुरानी दिल्ली का वो इलाक़ा जिसे शाहजहां ने बसाया था या फिर यमुना के किनारे बसी दिल्ली या फिर अंग्रेज़ों के समय बसी दिल्ली। ये सभी सुबह-सुबह एक निश्चित समय पर पहुंचकर पर्यटकों को साइकल थमा देते हैं और आगे-आगे साइकल चलाते जाते हैं और पीछे पर्यटक। मैं भी इस टूर को शूट करने के लिए सुबह 6 बजे पहुंच गई पुरानी दिल्ली के डिलाइट सिनेमा के सामने। वहां मिली स्तासा। स्तासा इस ग्रुप की एक गाइड है। उसने हमें बताया कि कैसे वो पिछले पांच महीने से भारत में केवल इस ग्रुप के साथ इंटर्नशीप के लिए है। इसकी शुरुआत जैक ने की है जोकि नीदरलैण्ड से है। वो दिल्ली में नीदरलैण्ड के एक अखबार के संवाददाता के रूप आए थे। लेकिन, कुछ नए की चाह में उन्होंने दिल्ली को साइकल पर घुमाने की शुरुआत की। सुबह-सुबह पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में मैं साइकल चलाऊंगी ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन, मैं चला रही थी। जिस दिल्ली में 6 साल से कुछ नहीं चलाया और शूट के चक्कर में उसे पूरा नाप लिया। उस दिल्ली में मैं साइकल चला रही थी, वो भी कुछ 15 साल बाद। मैं और मेरा कैमरामैन हम दोनों ने पूरे 11 किलोमीटर के टूर में कभी उनका पीछा किया तो कभी उनके आगे चले। मेरे कैमरामैन साइकल से ही ऑफिस आते हैं, तो साइकल नहीं लेकिन उसे चलाते हुए कैमरा हैंडल करना ज़रूरत भारी पड़ा होगा। पुरानी दिल्ली की गलियों में यूं साइकल पर देखकर लोग तो हमें कम चौंके मैं खुद ही अपने आपमें चौंकी हुई सी थी। स्तासा ने हमें तुर्कमान गेट, पुराने घर और मंदिर दिखाए। हालांकि इनके बारे में उसकी जानकारी मुझे कुछ कम लगी। कई बार मुझे उसे सही करना पड़ा। कामकाज स्पष्ट बोलना कितना ज़रूरी और हिम्मतवाला काम है ये मैंने उससे सीखा। स्तासा ने हमारे टूर के दो पर्यटकों को आधे टूर से ही लौटा दिया क्योंकि वो साइकल नहीं चला पा रहे थे। बिना किसी लाग लपेट के उसने कहां और वो दोनों चले भी गए। कोई भारतीय होता तो पैसे देने का रौब जमाते और साइकल ना आने की बात को छुपाने के पीछे दलील देते और वही झगड़ने लगते। स्तासा ने चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद, लाल किला और जामा मस्जिद भी दिखाई। इन्हें कई लोगों ने कई बार देखा होगा। लेकिन, जैसे मैंने देखा और जैसा महसूस किया वो यूनिक था। चांदनी चौक पर साइकल चलाना या फिर लाल किले के सामने भीड़ भाड़वाली सड़क को साइकल से क्रास करना। इस टूर में हमने नई दिल्ली को भी देखा और बदहाल यमुना नदी के साथ गंदी गौशालाओं को। इस सबके बीच कई बार ये महसूस हुआ कि अंग्रेज भारत गंदगी देखने ही आते हैं। इन टूर में भी अधिकतर अंग्रेज़ होते हैं। क्योंकि उन्हीं को भारत के इस चेहरे में दिलचस्पी है और वही है जोकि घूमने के उद्देश्य से लगातार तीन घंटे साइकल चला सकते हैं। हमारे लिए तो घूमने का अर्थ ही आराम होता है। मेरे लिए इस टूर को शूट करने से बड़ा अनुभव रहा यूं साइकल चलाना और दिल्ली के गली कूचों से गुज़रना। जहां कुछ लोग मुस्कुराते मिले तो कुछ छेड़ते और फब्तियाँ कसते। दो दिन तक उनका पीछा करने के बाद तीसरे दिन सुबह-सुबह में जल्दी ही उठ गई और लगा कि जैसे फिर चली जाऊं। मेरी यही तो परेशानी है बदलाव से डरती हूँ और अगर कुछ बदल जाएं तो बस उसी में ढल जाती हूँ...

2 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|

विवेक रस्तोगी said...

साईकिल से शहर को देखना अपने आप में अलग तरह का अनुभव है |