Saturday, January 28, 2012

लिटरेचर और साहित्य में अंतर होता है...

जयपुर में पिछले तीन साल से हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल में जाना भूल साबित हुई। लेकिन ग़लती हमारी ही थी कि हम उसे साहित्य समागम समझ बैठे। भुवन का जन्मदिन था और कई दिनों से दिल्ली और काम से छुटकारा भी चाहिए था। सो हमने चुना जयपुर को। जयपुर केवल इसलिए कि वहां पढ़ने लिखनेवालों की जमात इकठ्ठा होने जा रही थी। शनिवार को जब हमने होटल से रिक्शा किया तो पहले तो रिक्शेवाले को डिग्गी पैलेस के बारे में कुछ मालूम ही नहीं था। लेकिन जब उसे बताया कि वहां लिखने पढ़नेवाले बहुत सारे जमा हुए हैं तो उसे समझ आया कि स्टेशन से मिलनेवाली ज्यादातर सवारी आजकल जहां जा रही हैं वहीं इन्हें भी जाना हैं। केवल तीन साल हुए है इसलिए ये फेस्टिवल यहां के टूरिस्ट गाइड्स की सूची में शामिल नहीं हुआ हैं। वर्ना तो लखराली ढ़ाणी से पहले इसके दर्शन ही होते। खैर शनिवार के दिन के हिसाब से भीड़ भी वहां जमा थी। ये जानकर खुशी हो रही थी कि जयपुर में साहित्य में रूचि लेनेवाले इतने लोग रहते हैं। नामांकन करवाने के बाद महिलाओं और पुरुषों की अलग अलग लाइन में सुरक्षा जाँच हुई। भुवन की दो बार क्योंकि काले कुर्ते और काली जैकेट में वो कुछ संदिग्ध लगा पुलिसवाले को। खैर हम बहुत खुश थे कि हम साहित्य के इतने बड़े समागम में हैं। पहले ही टेन्ट में कबीर पर हो रही चर्चा में हमने शामिल होने की कोशिश की। लेकिन सारी सीट विदेशी पर्यटकों और जयपुरी कॉलेज के बच्चों ने घेर रखी थी। खड़े होकर कुछ देर सुना। अंग्रेज़ी में कबीर के बारे में जानकारी जुटाने का ये पहला मौक़ा था। हिन्दी के लेखक का बोलना बाक़ी था लगा कि कुछ हिन्दी में भी बोला जाएगा। लेकिन हिन्दी के लेखक का अंग्रेज़ी में व्याख्यान हमें दुखी कर गया। आगे बड़े तो फिर मुग़ल टेन्ट में शशि थरूर और कोई अंग्रेज़ लेखक का प्रवचन सुनने की कोशिश की। कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। सुनने की सारी कोशिशें नाकामयाब हो जाने पर फेब इंडिया, रितु वियर और 30 रुपए के समोसे के स्टाल के बीच एक किताबों की दुकान नज़र आई। अंदर गए तो कबीर और गुलज़ार और हिन्दु देवी देवताओं की किताबों के दर्शन हुए सब कुछ अंग्रेज़ी में... कबीर के दोहों का अंग्रेज़ीकरण देखकर खुशी भी हुई कि अंग्रेज़ भी अब कबीर को समझ सकेंगे। लेकिन, मुझे तो वो अनुवाद अर्थ का अनर्थ सा ही लगा। बाहर आकर लॉन में बैठ गए। भुवन सस्तीवाली कॉफी ले आया था। सार्वजनिक स्थल पर चल रहे धुम्रपान का अप्रत्यक्ष हिस्सा हम भी बनें। चेतन भगत पर झूमती फैशनेबल लड़कियों को देखते रहे हैं। मुफ्त में अखबार पढ़े और लिटरेचर फेस्टिवल को साहित्य समागम समझने की भूल पर कुछ देर हंसे। बाहर निकलते हुए कुछ साहित्य प्रेमियों को टेन्ट में घुसने के लिए गाली-गलौच करते देखा। दरअसल उस टेन्ट में ओप्रा विन्फ्रे आ गई थी। मैंने भुवन से पूछा क्या तुम्हें मालूम था कि ओप्रा लेखक भी है... भुवन ने ना में कंधे उचकाए। पैलेस में आते वक्त जो आराम था निकलते वक्त नहीं मिला। लोगों का हुजुम अंदर आने के लिए लड़ाई कर रहा था। पुलिसवाले उन्हें संभाल रहे थे। और, ऐसे में बाहर निकलने के लिए रास्ता खोजते हम दोनों बाक़ियों को बेवकूफ लग रहे थे। आखिर कैसे कोई लिटरेचर फेस्टिवल से भी बाहर आ सकता है.........

2 comments:

Bhuwan said...

उम्दा लेख। वैसे हमारा भी थोड़ा ज्ञान कम हैं.. ओप्रा विन्फ्रे ने करीब चार-पांच किताबों का सह संपादन किया है। इसके साथ-साथ ओ द ओप्रा मैगज़ीन और ओ एट होम पत्रिकाएं भी...

Anonymous said...

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