Friday, May 11, 2012

रिश्तों को मिलती नई परिभाषा?

दोपहर को लेडीज़ कोच कुछ हल्का होता है। बैठने को आसानी से जगह मिल जाती है। मैं भी आराम से बैठी हुई थी। मेरे बाजू में बैठी दो लड़कियां एक नई और ज्वलन्त समस्या पर गहन विचार-विमर्श कर रही थी। दोनों शादीशुदा थी और फेसबुक पर एक्टिव भी। उनकी समस्या ये थी कि उनके इनलॉज़ उनके फेसबुक पर फ्रेन्ड बनना चाहते रहे थे। एक बोली- यार ये हमारे बड़े भी बहुत तेज़ हो गए है, खासकर इनलॉज़। सबके सब फेसबुक पर अकॉउन्ट खोल चुके है और फ्रेन्ड रिक्वेस्ट भेजते है। इस पर दूसरी ने कहा कि ऐसे में सबसे बड़ी समस्या ये आती है कि फिर फेसबुक पर पिक (फोटोग्राफ्स) लगाए या नहीं... समस्या की गंभीरता उनके चेहरों से नज़र आ रही थी। मुझे ये सब सुनते हुए पहले तो हंसी आई लेकिन, फिर लगा कि ये एक नई और गंभीर समस्या है। मैंने देखा है कि कैसे मोहल्ले की भाभियां सास-ससुर के आगे साड़ी और घूंघट में रहती है और उनके जाते ही नाइटी में सब्जी खरीदने घर के सामने तक आ जाती है। सोचिए ऐसे में अगर सास अचानक से सामने आ जाए, बेचारी का क्या हाल होगा। फेसबुक भी एक ऐसी ही स्पेस है जहाँ हम खुद को अभिव्यक्त करते है, वो बने रहते है जोकि हम है। और, कई रिश्ते ऐसे होते है जिनके सामने हम अपना ये स्वरूप नहीं दिखा सकते है। सालों से चली आ रही सामाजिक मान्यता के खांचे में ढले हुए हम लोगों का मोड ससुराल और मायके में दो अलग-अलग तरह से काम करता है। मायके में होनेवाली शादी में एक लड़की जितनी चहकती और फुदकती है, ससुराल की शादी में उतनी ही धीर और गंभीर हो जाती है। लेकिन, इस मान्यता को बहुत हद तक तोड़ने की शुरुआत कर रहा है ये फेसबुक। फेसबुक पर आनेवाली सभी रिक्वेस्ट फ्रेन्ड्स के रूप में आती है और सभी को वो दोस्त के रूप में ही देखता है। भले ही बाद में आप कुछ को भाई, बहन, चाचा, नाना जैसे रिश्तों के पेड़ में लटका ले। लेकिन, फेसबुक इस वर्गीकरण के बाद भी सबको समान रूप से देखता है। स्टेटस अपडेट से फोटो अपडेट तक सब कुछ फेसबुक समान रूप से लोगों के सामने लाता है। देखनेवाला इसे देखता है, अपनी बुद्धि से समझता है और आपसे उनके रिश्ते के आधार पर नापता है। इसके बाद वो इसे कैसे लेता है, इस बात की परवाह किए बिना फेसबुक उसे आपकी वॉल पर चिपकाता है। फेसबुक पर बहू की दोस्त बनकर सास शादी के वक्त पारंपरिक वेशभूषा में सजी अपनी बहू को बार-बार देख सकती है, निहार सकती है। लेकिन, हनीमून के लिए गोवा घूमने गई बहू को शॉट्स में भी सास आसानी से देख सकती है। हो सकता है कि बहू को उस तरह से देखने में उसे परेशानी हो जाए। हो सकता है उस पर बहू के दोस्तों के आ रहे कमेन्ट्स को पढ़कर उन्हें असहज महसूस हो। ऐसे में वो सास क्या करेगी, क्या वो चुपचाप गुस्से में उसे दोस्तों की लिस्ट से निकाल देगी। या फिर एक टिपिकल सास की तरह लड़ाई कर लेगी। लेकिन, सिक्के का दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि सास बहू को उसके असल रूप में स्वीकार कर ले और उसे पसंद करे। ये रिश्ता और ये घटना तो उदाहरण मात्र है, ऐसे कई रिश्ते और पेसबुक पर होनेवाले अपडेट और फोटो देखे जा सकते है। लेकिन, जो भी हो फेसबुक पर बननेवाली ये नई दोस्तियां शोध का विषय हो सकती है। अगर मैं अपनी ही बात करूं तो मेरी शादी के बाद से मेरी दोस्तों की लिस्ट में भी कई ससुराली रिश्ते जुड़े है। लगभग नब्बे फीसदी रिश्तेदारों से मैं असल में मिली भी नहीं हूँ। ऐसे में मेरी जो भी छवि बन रही है फेसबुक के ज़रिए ही बन रही है। कई मायनों में मुझे ये बहुत राहत देनेवाली बात लगती है। मुझे ये लगता है कि मैं वही हूँ जो मैं असल में हूँ। फेसबुक अब धीरे-धीरे सोशल नेटवर्किंग साइट से ऊपर उठकर समाज में होनेवाले बदलावों का सूत्रधार बनता दिखाई दे रहा है। असल में ये केवल फेसबुक का मसला ही नहीं है ये हरेक सोशल साइट से जुड़ा मु्ददा है, जहाँ एक लड़की ये ट्वीट कर सकती है कि वो गर्भवती है और उसके फॉलोअर में उसके सास और ससुर भी हो सकते है। सोशल साइट्स हमारे सामाजिक ताने-बाने को धीरे-धीरे ही सही लेकिन, कई तरह से बदल रहे है। उम्मीद है ये बदलाव सकारात्मक हो...

1 comment:

Bhuwan said...

नया विषय.. अच्छी सोच अच्छा आलेख