Monday, July 30, 2012

समाज का नज़रिया विज्ञापन में... या, विज्ञापन के ज़रिए समाज...


पापा ने कभी गाड़ी चलाना नहीं सीखा। हमेशा या तो सरकारी गाड़ी में चले या तो सार्वजनिक परिवहन या फिर मेरी स्कूटी या भैया की मार्वल के पीछे बैठे। कई बार रौशनपुरा चौराहे के गोल चक्कर पर गाड़ी मोड़ते हुए ट्रैफिक सिग्नलवालों ने पापा को टोका कि अरे क्या भीड़वाली सड़क पर बच्ची को गाड़ी सीखा रहे हो। पापा हंसकर बोलते- अरे, मुझे तो आती ही नहीं है। मैं तो पूरे तरह बच्ची के ही भरोसे हूँ।
ऐसे ही कॉलेज के दिनों में जब मैं स्कूटी चलाती थी और भुवन पीछे की सीट पर आराम से बैठता था तो कई लोगों आश्चर्यचकित हो जाते थे। कई बार दबी ज़बान में और कई बार साफ-साफ लोगों ने हमें कहा भी कि क्या यार... दीप्ति क्यों गाड़ी चलाती है, तुम क्यों नहीं चलाते हो। भुवन हंसकर बोल देता ड्राइवर गाड़ी चलाता है, मालिक नहीं...
संक्षेप में ये कि मैं हमेशा से ही गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठी। कभी मुझे ये नहीं लगा कि मैं लड़की हूँ और मुझे गाड़ी चलानी नहीं बल्कि बस पीछे बैठना है। लेकिन, असल में बहुत सालों तक गाड़ी चलाना एक मर्दाना काम माना जा रहा है। आज भी आधे से ज्यादा लोग (जोकि मर्द ज्यादा है) ड्राइवर के ग़लती करने पर, बिना देखे झट से बोल देते है ज़रूर कोई लड़की ही गाड़ी चला रही होगी। खैर, गाड़ियाँ और गाड़ी चलाना मर्दाना काम है इस मानसिकता की पुष्टि विज्ञापनों से हो जाती है। चार पहिया गाड़ी हो तो ड्राइविंग सीट पर हमेशा पति या भाई या पिता ही होता है। दो पहिया गाड़ियों के तो विज्ञापन ही ऐसे होते है कि उन्हें देखकर लगता है कि गाड़ी नहीं कोई मर्दाना शान की चीज़ है। लड़कियों के लिए स्कूटी या ऐसी ही बाइक के विज्ञापन आते तो है लेकिन, कुछ इस तर्ज पर जैसे घर में सिमटी हुई, दबी हुई लड़की को कोई पंख मिल गए हो। और, जिनका इस्तेमाल वो केवल ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए ही करती है। इनके बीच वॉयशुड बॉयज़ हैव आल द फन या फिर लड़की को झेड़नेवाले लड़के का पीछा करती लड़कियाँ भी विज्ञापनों में आई... देखकर अच्छा लगा। लेकिन, पिछले कुछ हफ्तों से एक नया विज्ञापन आ गया है। जिसमें लड़कियोंवाली (विज्ञापनों द्वारा घोषित) बाइक को लड़का चला रहा है और एक बार फिर उसे टोटली बॉय थिंग बता रहा है। समझ नहीं आता है कि विज्ञापनों के ज़रिए लोगों की मानसिकता सामने आती है या समाज की मानसिकता को ये विज्ञापन तय करते हैं। हर उत्पाद के विज्ञापन के लिए लड़की ज़रूरी है लेकिन, किसी भी विज्ञापन में महिला को मुख्य रूप से नहीं दिखाया जाता है। मसालों के विज्ञापन में भी महिला खाना तो बनाती है लेकिन, पति और परिवार के लिए। कभी किसी अकेली महिला को आराम से खुद के लिए खाना बनाते नहीं दिखाया जाता है। उत्पाद की बिक्री के लिए जितना ज़रूरी विज्ञापन है, विज्ञापन के हिट होने के लिए उतना ही ज़रूरी उसमें महिला का होना है...

1 comment:

विनीत कुमार said...

बिल्कुल सही कहा आपने. बल्कि बाइक के विज्ञापन और डियो के विज्ञापन में और उधर स्कूटी और सैनिटरी नैपकिन के विज्ञापन में तुलना करें तो आपको कोई खास फर्क नजर नही आएगा.