Friday, April 13, 2018

कभी कभी मैं खुद को समझ नहीं पाती हूं


कभी कभी मैं खुद को समझ नहीं पाती हूं। जानती हूं किसी की नीयत का भरोसा नहीं, ना ही मुझे कराटे आता है। फिर भी रोज़ाना निकल जाती हूं काम पर। सड़कों पर अकेले चलती हूं, रात 11 बजे की मैट्रो पकड़ती हूं कभी, तो कभी कैब शेयरिंग में निकल जाती हूं अकेले ही। ऑफिस, घर, बाज़ार, रास्ते भर सुनकर अनसुना करती हूं  कई बातों को। घर में भी तो कितने ही ऐसे मर्द हैं जो कहने तो रिश्तेदार है लेकिन जानती हूं उनकी नज़रों के इशारों को फिर भी सबके साथ मिल जुलकर रह लेती हूं। ये जीवन जीना है, कुछ करना है, बेहतर बनना है, ना जाने किस मुगालतें में जीती हूं। कभी कभी मैं खुद को भी समझ नहीं पाती हूं।

दीप्ति

1 comment:

Unknown said...


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