Wednesday, September 3, 2008

बांधों का टूटना...

एक बांध का टूटना क्या होता है। इस वक़्त ये हर कोई देख रहा हैं, झेल रहा हैं। लेकिन, नदी का बांध तो सालों में कभी एक बार टूटता है और उससे होनेवाली तबाही के गवाह लाखों होते हैं। इस वक़्त अगर न्यूज़ चैनलों पर चलनेवाली ख़बरों पर नज़र डाले तो लगता है बांध तो हर जगह टूट रहे हैं। हर पल कहीं ना कहीं एक बांध टूट रहा हैं। और ये बांध हैं - सब्र के।




प्राकृतिक त्रासदा को झेल रहे लोगों को उम्मीदें थी, कि सरकार कुछ करेंगी। इस आपदा को झेलते हुए भी शायद उनके मन में सरकार पर यक़ीन और सब्र का बांध मज़बूती से खड़ा हुआ था। ये बांध भी अब टूट चुका है। लेकिन, अचानक नहीं एक झटके में नहीं। बल्कि पूरी निर्लज्जता के साथ इसकी एक-एक ईंट उखाड़ी गई हैं।




लेकिन, बांध सिर्फ़ बिहार में ही नहीं टूटा है। एक बांध उड़ीसा में भी टूटा है - धार्मिक सहिष्णुता का बांध। कंधमाल में चल रही हिंसा इसका ताजा सबूत है। हिन्दू नेता की हत्या की गुत्थी सुलझाने के लिए वहाँ के लोगों को किसी पुलिस की ज़रुरत नहीं। वो ख़ुद ही खोजबीन करनेवाले और फैसला सुनानेवाले बन गए हैं। हालात कुछ ऐसे हो गए है क्षेत्र के अल्पसंख्यक अपने ही घरों में ख़ुद को असुरक्षित मानने लगे हैं। हमारी सामाजिक आस्थाओं का बांध आज इतना कमज़ोर हो चुका है, कि उसे तोड़ने के लिए किसी सैलाब की कोई ज़रुरत ही नहीं रही है। एक हवा का झोंका भी इसे हिला जाता है।

ऐसा ही एक बांध टूटा है - पश्चिम बंगाल में। ये बांध था जीने के हक़ का। अपनी ही ज़मीन पर अन्न उगाने के हक़ का। या ये वो पुल था जो मानव को मशीनरी से जोड़ता है। मानव या मशीन की इस जंग में अब तक कइयों ने अपनी जान गंवा दी हैं। अपनी उपजाऊ ज़मीन को न छोड़ने पर अड़े किसानों और देश को सस्ती कार उपलब्ध करवाने का सपना देख रही सरकार की इस लड़ाई में कइयों की नींदें उड़ा दी हैं। उपजाऊ ज़मीन पर अन्न की खेती या कार की मैन्यूफ़ैक्चरिंग। क्या ज़्यादा ज़रूरी ये आज तक तय नहीं हुआ हैं।

ऐसा ही एक बांध टूटा - जम्मू कश्मीर में। धार्मिक आस्था से जुड़े इस मामले ने भी लोगों के अंदर के सब्र और सहिष्णुता के बांधों को तोड़ दिया। अमरनाथ मंदिर बोर्ड को ज़मीन सौंप देना राज्य के अलगाववादियों को सहन ना हुआ, तो उनका ये विरोध हिन्दूओं को सहन न हुआ। और इसी असहनशीलता ने तोड़ दिया मानवता का बांध। जल उठा घरती का स्वर्ग। एक ही राज्य को दो हिस्सों में कर दिया और खड़ा कर दिया एक दूसरे के सामने। विरोधियों की संवेदनशीलता इस बात से समझी जा सकती हैं कि, अमरनाथ यात्रा के दौरान होनेवाली असुविधाओं को लेकर कभी कही कोई विरोध या सवाल नहीं पूछे गए।

अंततः ये तो वो बांध थे जो टूटे और अपने साथ कइयों को बहा ले गए। कइयों को उजाड़ गए। लेकिन सब्र के ऐसे बांध हम सभी के अंदर मौजूद है। जो आज के वक़्त में ज़रा सी बात पर टूट जाते हैं। कल रात दिल्ली में एक ब्लू लाइन से कार की टक्कर हो गई और कार चालकों ने ड्राइवर को मार डाला। एक टक्कर और कुछ लोगों की असहनशीलता ने एक घर का कमाऊ इंसान, पिता, पति, बेटा झीन लिया। आगरा में एक पति ने अवैध संबंध के शक़ में पत्नि को मुसल से कुचल दिया। छत्तीसगढ़ के एक जिले में माँ-बेटी को बकरी चोरी के शक़ में मार दिया गया। और ना जाने क्या-क्या... ये बांध ईंट या सींमेंट के बने हुए नहीं थे। ये बांध बने थे संवेदना, मानवता और सहनशीलता से। ईंट पत्थर के बने बांध तो देखभाल में हुई ढीलाई और भ्रष्ट तंत्र के चलते टूट गए... लेकिन, क्या अब हमारी संवेदनाएं भी मिलावटी हो चली हैं... इन रोज़-रोज़ टूट रहे बांधों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा... इनके टूटने का दोष हम किस पर मढ़ेगें...

4 comments:

Anonymous said...

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Anonymous said...

its good to know about it? where did you get that information?

Anonymous said...

very cool.

Anonymous said...

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