Monday, November 24, 2008

जब मैंने देखा ख़ुद को माँ की जगह...

जब हम छोटे थे तो नानी के घर टिमरनी जाया करते थे। वहाँ सारे मामा और मौसी के बच्चे इकठ्ठे होते थे। यही कोई 50 लोग हो जाते थे। वो भी केवल घर ही घर के। बड़ा मजा आता था। लेकिन, आज तो सब ख़त्म हो गया। कोई नहीं आता जाता हैं। कुछ नहीं बचा है। न नानी रही। और अब तो कोई आता जाता भी नहीं है ज़्यादा। अब क्या कर सकते हैं...
ये बातें मैं कुछ न कुछ दिनों में मम्मी के मुंह से सुन ही लेती थी। सोचकर लगता था कि पता नहीं कैसा था मम्मी की नानी का घर पहले। क्योंकि मैं तो जब भी गई मुझे कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। हाँ, मुझे मज़ा आता था देवास में। अपनी नानी के घर में। गर्मी की छुट्टियों में जब हम वहाँ जाते थे और मौसियों और मामाओं के सारे बच्चे जुड़ते थे। क्या धमाल होती थी। तब मम्मी की बातें सुनकर लगता था चलो ठीक है। लेकिन, देवास तो हमेशा यूँ ही आबाद रहेगा। हम हमेशा यूँ ही रहेंगे। देवास की रौनक कुछ यूँ थी कि... सुबह-सुबह उठना। टेकरी पर चढ़ना। बिना नहाए धुआए ही माता के दर्शन करना। रेस लगाना कि कौन कितना भाग सकता हैं। फिर घर आना साथ में मिलकर आंगन में नहाना। मामी का नाश्ता बनाकर खिलाना। फिर खाने के लिए मामा का इंतज़ार। जब वो बीएनपी(बैंक नोट प्रेस) से आते खाना खाने तब उनकी एक प्लेट पर ही हम बीसीयों का टूट पड़ना। आई (नानी) का मामा को डाँटना कि मत खिला साथ में भांजे भांजियों को कर्ज़ चढ़ेगा। फिर दादा (नाना) के साथ बातें करना। कहानियाँ सुनना। रोज़ रात को मेंहदी लगाकर सोना... मेरा ननिहाल हमेशा यूँ ही रहेगा...
लेकिन, मेरी ये सोच कुछ वैसे ही बदल गई जैसे कि मेरी मम्मी की। आज मैं भी हर किसी को यही कहती हूँ कि...
जब हम छोटे थे तो नानी के घर देवास जाया करते थे। वहाँ सारे मामा और मौसी के बच्चे इकठ्ठे होते थे। यही कोई 50 लोग हो जाते थे। वो भी केवल घर ही घर के। बड़ा मजा आता था। लेकिन, आज तो सब ख़त्म हो गया। कोई नहीं आता जाता हैं। कुछ नहीं बचा है। और अब तो कोई आता जाता भी नहीं है ज़्यादा। अब क्या कर सकते हैं...
इस बार जब देवास गई तो लगा कि किसी विरान जगह पर आ गई हूँ। अब कोई यहाँ एक साथ इकठ्ठा नहीं होता हैं। सब अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त हो चुके हैं। मेरे घर में घुसते ही दादा ने कहा - कितने दिन हो गए थे तुम्हें देखें। आई हो तो रुकोगी न यहां कुछ दिन। मैंने ना में सर हिलाकर कहा - नहीं दादा कल ही वापसी है। दादा कुछ न बोले। आई इतनी कमज़ोर लग रही थी। फिर भी सुन्दर। गोरे से मुखड़े पर गोल लाल बिन्दी में। लेकिन, अकेली बैठी हुई थी। घर में मामा है मामी है, एक कज़िन है जो कि वही नौकरी कर रही है। लेकिन, सब व्यस्त भी है। तीनों ही नौकरी करते हैं। सुबह जाना शाम को आना। दिनभर आई-दादा अकेले। जब मैं और मम्मी निकल रहे थे। मन में लगा कि रुक जाऊँ कुछ दिन। कैसे रहते हैं ये दोनों यूँ अकेले... लेकिन, मैं नहीं रुक सकती थी।

घर से निकल कर जब बस में बैठे तो मम्मी ने कहा - कितनी रौनक रहती थी इस घर में देखो आज दोनों अकेले हैं। कल तो ये भी न होगें। फिर तो ये घर, घर ही न लगेगा। मैं कुछ नहीं बोल पाई। बस आंख में आंसू आ गए, ये सोचकर कि शायद ये भी एक दिन मुझे कहना है...

4 comments:

संगीता पुरी said...

आजकल वैसा ही माहौल बन गया है सारे जगहों पर। जहां आज रौनक रहती है , दूसरे दिन विरानी । बूढे , बुजुर्ग अपने बच्‍चों की राह तकते थक जाते हें और बच्‍चे हैं कि कार्यों की व्‍यस्‍तता में दर्शन भी नहीं देते।

Anil Pusadkar said...

ऐसे ही कुछ गुज़रा है मेरा बचपन भी.आज भी साल मे दो-तीन् बार ननिहाल् जाता हूँ.नानाजी की माडी यानी बिल्डिँग खस्ताहाल खडी है.लगभग आधे एकड का आँगन झाड-झँखड से भर गया है.घर से लगे खेत और अमराई वैसी ही है मगर् अब वहा वो मज़ा नही है.नानी और नानाजी नही रहे.मामाजी अमरावती मे रहते है. कभी-कभी गाँव जाते है खेती के काम से.मै वँहा जाता हूँ मावशी का विवाह गाँव मे ही हुआ है,उनके घर रुखते हूँ.मामाजी के घर और खेत जाकर घण्टो बैठ कर बचपन की याद करता हूँ.सब कुछ बदल गया है.शायद रिश्ते भी?

Manish Kumar said...

संयुक्त परिवार के खात्मे के साथ बहुत कुछ खत्म हो गया....

Bhuwan said...

बेहतरीन और भावनात्मक आलेख... ज़िंदगी में कई बदलाव आते है.. कई हमें खुशी देते है तो कई ग़म. ज़िन्दगी की इस तेज़ रफ़्तार में कई चीजे पीछे छूट जाती हैं...