Thursday, February 5, 2009

रगों में दौड़ती सिनेमा... और सिनेमा की रगें...


दिल्ली 6, राकेश ओम प्रकाश मेहरा की नई फ़िल्म। फ़िल्म का नाम कुछ अटपटा-सा है। दिल्ली 6 का अर्थ हुआ दिल्ली, पिन -110006 यानि की पुरानी दिल्ली। फ़िल्म की कहानी शायद पुरानी दिल्ली (वॉल्ड सिटी) को पृष्ठभूमि में रखकर लिखी गई है। फ़िल्म में दिखाई जा रही दिल्ली को देखकर कम से कम दिल्ली के लोग तो बहुत खुश नज़र आ रहे हैं। हरेक अपने-अपने अनुभव सुना रहा है। लड़के अभिषेक में और लड़कियां सोनम में ख़ुद को देख रही हैं। ये अनुभव सुनकर और दिल्ली 6 की दिल्ली देखकर मुझे भी रह-रहकर भोपाल की याद आती है। कभी नूतन कॉलेज में ग्रेजुएशन के वक़्त की हुई मस्तियाँ, तो कभी किताबों के लिए मोती मस्ज़िद के आसपास की दुकानों में भटकना, कभी न्यू मार्केट के पानी-बताशे, कभी दोस्तों के साथ बड़ी झील और वन विहार की सैर, तो कभी सिटी में सूट के मेचिंग दुपट्टे के लिए परेशान होना। सब कुछ आंखों के आगे घूमने लगता हैं। अपने इन अनुभवों से लगता हैं कि सच में सिनेमा समाज का आईना होता है। हालांकि कई बार फ़िल्मों के कई क़िरदार बेहद फ़िल्मी लगते हैं। लेकिन, फिर भी कई बार ऐसा हुआ है कि किसी क़िरदार को देखकर लगता हैं कि अरे ये तो मेरी ही तरह है। सिनेमा का यही वो पहलू है जो हर किसी को कहीं न कहीं उससे जोड़ता है। कभी देवआंनद मुंबई की ट्रेन में वहीदा रहमान के लिए है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पर आएगा... गाते है, तो कभी विवेक ऑबेरॉय रानी मुकर्जी के लिए चलती ट्रेन से कूदने को तैयार रहते है। और, फ़िल्मों में ये सब होता देख हर किसी के चेहरे पर एक मीठी-सी मुस्कान आ जाती हैं। किसी को पुराने दिन याद आते हैं, तो कोई अपने प्रेमी या प्रेमिका को याद करके मुस्कुरा देता हैं, तो कोई सपने संजोने लगता है। हरेक इंसान ख़ुद को कहीं न कहीं सिनेमा में पाता है। वो माँ का किरदार हो या बहन का। बेटे का हो या पति का। कई बार हमने फ़िल्मी कलाकारों को भी ये बोलते सुना हैं कि ये किरदार मेरे दिल के क़रीब है क्योंकि मैं भी असल ज़िंदगी में ऐसा/ऐसी ही हूँ। फ़िल्मी किरदारों की तरह फ़िल्मी कहानियाँ भी हमें कई बार अपनी सी लगती हैं। लगता है कि जिन परिस्थितियों से किरदार जूझ रहा है वो हमारे भी हैं। कभी रंग दे बसंती देखकर युवा का जोश जाग उठता है, तो कभी लगे रहो मुन्ना भाई देखकर गांधीजी दोस्त बन जाते हैं। बार यही सिनेमा कइयों को आहत भी कर देती हैं। कभी आजा नच ले के गाने से मोची शब्द निकालने के लिए हंगामा होता हैं और हाल फिलहाल शाहरूख की फ़िल्म बिल्लू बारबर को लेकर नाई समाज गुस्से में हैं। सिनेमा का समाज पर कितना असर है ये इन विरोधों से भी समझ आता है कि ये हमारी ज़िंदगी का कितना अहम और अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं। सिनेमा हमारी दुख और सुख की रगों से वाकिफ है और सिनेमा की रगों में हमारी ही कहानियाँ दौड़ रहा हैं.....

1 comment:

कुश said...

बिल्कुल ठीक कहा आपने... इम्तियाज़ अली के किरदार भी दिल के करीब ही लगते है.. चाहे फिल्म सोचा ना था हो आहिस्ता आहिस्ता या फिर जब वी मेट... जब वी मेट की करीना में कई लड़कियो ने खुद को देखा होगा..