Friday, March 6, 2009

पारखी नज़र और निरमा सुपर...

पापा आप दिल्ली गए मम्मी ने मुझे डांटा...
या कोक के साथ दोस्त फ़्री....

या फिर आइडिया के विज्ञापनों में जनता की आवाज़....

ये है विज्ञापन जगत की दुनिया। जहां महज 40 से 50 सेंकेंड में आपको कुछ ऐसा दिखा दिया जाता है जो देर तक आपके ज़हन में बना रहता है।

और, हमारी फ़ितरत कुछ ऐसी होती है कि हम बड़ी जल्दी ख़ुद को पर्दे की दुनिया से जोड़कर देखने लगते हैं। लिम्का का नया विज्ञापन भी कुछ ऐसा ही है। शहर की भीड़भाड़ और काम से थका एक जोड़ा ताज़गी की तलाश में लिम्का पीता है और खूब मस्ती करता हैं। उस विज्ञापन को देखकर कई बार मन में आया कि काश ऐसा कुछ असल ज़िंदगी में भी हो सकता और अगर होता तो ऐसा करनेवाली में पहली होती। ऐसे ही है एयरटेल के विज्ञापन। वो जवान बेटे का नौकरी की तलाश में शहर जानेवाला विज्ञापन हो या छोटे से बेटे का मम्मी की डांट से दुखी होकर पिता को फोन करनेवाला विज्ञापन। दोनों ही एक पिता के चेहरे पर मुस्कान ला देते हैं। ये विज्ञापन कुछ ही पलों में हमें ताज़ा कर जाते हैं। कोक के साथ दोस्त फ़्री... देखते ही लगता है काश हमें भी यूँ दोस्त मिल जाते। कई विज्ञापन कुछ पलों में ही हमारे अंदर की अच्छाइयों और बुराइयों को जाहिर कर देते हैं। एक नई बाइक का विज्ञापन कुछ ऐसा ही है जिसमें दो एक दूसरे से बहुत प्यार करनेवाली बहनें बाइक पर बैठने के लिए मार कुटाई तक पर आमादा हो जाती हैं। वही चाय की चुस्कियों के बीच सास और बहू के बीच का प्यार मनुहार का विज्ञापन कुछ ही पलों में हमें गुदगुदाकर चला जाता है। कई विज्ञापन जनहित में भी जारी किए जाते हैं। जैसे कि वोट डालने के लिए जागो रे... या फिर आइडिया के जनता से पूछनेवाले विज्ञापन... जो कई बार हमें बहुत कुछ सीखा जाते हैं। तो कई बार हमारी आंखें खोल जाते हैं।
विज्ञापनों का असर हमारी ज़िंदगी पर कितना गहरा है ये कुछ ऐसे पता लगता है राजू के मोतियों से सफेद दांत आज भी हमें याद हैं। या फिर ओनीडा की पड़ोसियों की जलन को हम आज भी पहचान जाते हैं। कई बार तो ऐसा लगा कि कुछ उत्पादों की बिक्री ही मज़बूत विज्ञापन के दम पर हुई। जैसे कि बहुत पहले आया खाने का एक उत्पाद जिसका नाम में भूल गई हूँ। लेकिन, उस विज्ञापन में कुछ ऐसा दम था कि लगभग सभी ने उस केक की तरह ही कुछ मीठे उत्पाद को खाया था। लेकिन, बस एक बार उसके बाद तो वो उत्पाद बाज़ार से गायब ही हो गया।


देश में कई ऐसे उत्पाद मौजूद है जो उदारीकरण के चलते यहां आएं हैं। जो विशुद्ध रूप से विदेशी थे, यहां तक कि हमारे देश में उनकी कुछ ख़ास ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन, ज़ोरदार विज्ञापनों के चलते ही वो चले और आज तक टिके हुए हैं। कई विज्ञापनों ने हमारी सोच को धीरे धीरे ही सही लेकिन सकारात्मक रूप से बदला। आजकल आ रहा ब्रू कॉफ़ी का विज्ञापन इसका उदाहरण हो सकता है। जिसमें थककर आई पत्नि के पैर पति दबाने लगता है। या फिर जहां पिता से सीमित बात करनेवाला बेटा ये देखकर स्तब्ध रह जाता है कि पिता सुबह 4 बजे उसके लिए टैक्सी लाए हैं। कुछ विज्ञापन और उनकी जिंगल को हम तब से सुनते आ रहे हैं जब वो पहली बार टीवी पर आए थे।

जैसे कि सनट्रॉप का हेल्दी आइल फॉ़र हेल्दी पीपल... या फिर विडियोकॉन वॉशिंग मशीन... विज्ञापनों की दुनिया को मोह कुछ ऐसा है कि बड़े से बड़ा सितारा भी इनमें काम करने की तमन्ना रखता हैं। कुछ सेंकेंड के ही लिए सही इनमें आनेवाले किरदार और कलाकार हमें जल्दी याद होते हैं और देर तक याद रहते हैं। हच का कुत्ता आज सभी का प्यारा है या फिर रसना बेबी और पारले जी के पैकेट पर छपा स्माइली बच्चा आज कितना ही बड़ा क्यों न हो गया हो हमें वो उसी तरह से याद हैं।

टीवी पर आनेवाले विज्ञापनों के बीच उत्पादों के प्रचार के लिए बने ये विज्ञापन आज अपने आप में अलग विधा बन चुके हैं। हमारे रहन सहन को तय करनेवाले, उसे बदलनेवाले विज्ञापन देखनेवालों पर जादूई असर डालते हैं। हमारी बोली को बदलते हैं। हमें देश के ऐसे कोनों से जोड़ देते हैं जहां शायद ही हम कभी जा पाएं। मेरी नज़र में लोगों को आपस में जोड़े रखने में विज्ञापन एक अहम किरदार निभा रहे हैं...

1 comment:

डॉ .अनुराग said...

दरअसल सपने बेचना भी एक कला है .....ओर जिंदगी के उन लम्हों से जुड़ना जो भाग दौड़ की धूप में छाँव सा अहसास देते है .वाकई अच्छा लगता है....मेरा ५ साल का बेटा कुछ भी खेल रहा हो.इस ऐड को मुड कर देखता है .बरसो पहले स्कुल टीचर का रेमंड्स का ऐड आज भी जेहन में ताजा है...