Saturday, July 18, 2009

क्या मार्केटिंग के नियमों पर चलती है जेबकरती?

लक्ष्मी नगर स्टॉप से पहले ही पटपड़ के पुल पर एक बुज़ुर्ग ने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया। उसकी जेब कट गई थी। वो चिल्ला रहा था कि उस पीली टी-शर्टवाले ने काटी है। कोई सवारी उसकी इन बातों पर ध्यान नहीं दे रही थी। सब चुप थे। उसने बस के कन्डक्टर को कहा कि इसने जेब काटी है, लेकिन वो भी चुप रहा। आखिर में वो पीली टी-शर्टवाला लड़का लक्ष्मी नगर में उतर गया। खैर, रोज़ाना ही ऑफ़िस से रूम और रूम से ऑफ़िस आते-जाते में ही इस शहर और यहां के रहन-सहन के बारे कुछ न कुछ नया जानने को मिल जाता है। दिल्ली की ब्लू लाइन बसों में चलते हुए है जाना है कि इसने दो कन्डेक्टर, एक या दो हेल्पर होते हैं। यानी कि एक बस में ड्राइवर समेत कुल पांच लोगों का स्टाफ़। एक बस के लिए इतने लोग मुझे ज़्यादा लगते थे। लेकिन, कई बार मैं देखती थी कि जो टिकिट काट रहा था वो तो जनपथ पर ही उतर गया अपने पूरे पैसे दूसरे कन्डक्टर के हाथ में सौंपकर। बाद में मालूम चलाकि ये तो इस बस की पुरानी सवारी है जोकि पीक समय में मदद कर देती है। एवज में रोज़ाना की उस बस में मुफ़्त की सवारी। यानी कि किसी ऑफ़िस या दुकान में काम करनेवाले ये नौजवान बस में कन्डक्टरी को बुरा नहीं मानते हैं। अच्छी बात ये है तो। लेकिन, आज की मेरी नई जानकारी कुछ बुरी और ख़तरनाक लगी। ड्राइवर के पासवाली बोनट सीट पर बैठे-बैठे में चुपचाप सारी बातें सुन रही थी। जिसकी जेब कटी वो बस के कुछ खाली होने पर आगे ड्राइवर के पास आया बोलने लगा कि तुम्हें सब पता था कि किसने जेब काटी तुमने फिर भी कुछ नहीं कहा। ड्राइवर ने झल्लाकर कहा - हम क्या करते इसमें। सवारियों को तुम्हारा साथ देना चाहिए वो तो चुड़ियाँ पहने बैठी रहती हैं। हमको तो इसी रूट पर दिन-रात चलना है। किसी से हम क्यों दुश्मनी ले। आपका क्या है आज इस गाड़ी में कल उस गाड़ी में। आज इस रूट पर कल उस रूट पर। हमें कुछ हुआ तो... ड्राइवर बिना रूके गुस्से में बोले जा रहा था। वो बताने लगा कि पुलिसवालों को भी सब कुछ पता रहता था। मेरे एक कन्डक्टर ने एक बार एक जेबकतरें को पकड़ लिया था तो बेचारे का मुंह फाड़ दिया था उनकी गैंग ने। मरते-मरते बचा था वो... हम ही बुरे बनते हैं। हम बस चलाते इसलिए... अरे, हम कोई बुरे आदमी नहीं... ये... वो... ये... वो... वो बस बोलता ही गया। वो बुज़र्ग सवारी भी सिस्टम, पुलिस और ऐसी सवारियों को कोसते हुए उतर गए। इसके बाद कन्डक्टर और ड्राइवर के बीच अलग से बातचीत हुई। कन्डक्टर ने ड्राइवर को पूरी जानकारी दी कि कौन सी गैंग के जेबकरतें थे। कहां चढ़े थे और कहां उतरे थे। ड्राइवर ने कन्डक्टर को नसीहत दी कि- तू बीच में न घुसियो, दूर ही रहा करियो... ये सवारी इतने सालों से बस में सफ़र कर रही है फिर भी अगर जेब बचाना नहीं सीख पाई तो हम क्या करें...
मुझे ये पूरी बात जानकर बहुत आश्चर्य हुआ।
हमारे इस लोकतंत्र के सभ्य समाज को चलाने के लिए बने सिस्टम के सामने बराबरी में एक कितना मज़बूत भ्रष्ट सिस्टम खड़ा हुआ है। यहां भी एक पूरा तरीक़ा है जिसके मुताबिक़ ही हरकोई आगे बढ़ता हैं। किसे कितने पैसे कब देना है, कौन कौन-सी बस में चढ़ेगा, कब चढ़ेगा सबकुछ तय रहता है। शायद एमबीए किए हुए मार्केटिंग के वाइट कॉलर एग्ज़िक्यूटीव्स की तरह इनके भी टारगेट होते होगे। 50 फ़ीसदी तय सेलेरी और बाक़ी फ़्लोटिंग कितने की जेब काटी इस पर निर्भर...

3 comments:

राजन अग्रवाल said...

हकीकत तो यही है, लेकिन सभी इतने बेईमान भी नहीं होते, हालाँकि गेंहू के साथ घुन तो पिसता ही है.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

एक वाकया मेरा भी देखा हुआ है. वहां भी किसी ने कुछ नहीं किया था. अब तो वाकई सवारी की ही जिम्मेदारी है की अपनी जेब की हिफाज़त करे. बदमाशों का क्या है, एक चाकू चलाते देर थोड़ी लगती है! चंद रुपयों के लिए जान से हाथ धोने वाली हरकत करना ठीक नहीं.
जानता हूँ ये खयालात कायराना हैं लेकिन तीस पार करने के बाद दिमाग उस ओर जाने लगता है की मुझे खुद से जुड़े लोगों की खैरियत के लिए अपनी 'हिफाज़त' करनी चाहिए.

विवेक रस्तोगी said...

जी हाँ, हमारे साथ भी जेबकट की घटना हो चुकी है परंतु हम जेबकट पर भारी पड़ गये थे वे भले ही ३ के समूह में थे पर हम भी छ: भाई एक साथ थे पकड़ कर खूब धुनाई की थी हमने उन लोगों की। हाँ अगर अकेले होते तो शायद चुप रहने में ही भलाई समझते।