Wednesday, September 16, 2009

एनजीओ और सरकार का रिश्ता...



दिल्ली सरकार ने निचनी बस्ती में रहनेवाले बच्चों को पढ़ाने के लिए एक नई स्कीम की शुरुआत की है। इस स्कीम के तहत कुछ टीचर्स पढ़ाई-लिखाई का सामान बसों में भरकर इन बस्तियों में जाते हैं। बच्चे इकठ्ठा होते हैं और पढ़ाई करते हैं। दो घंटों तक इन बच्चों को पढ़ाकर बस किसी और रास्ते निकल जाती हैं। हर रोज़ बस एक तय समय पर उस बस्ती पहुंच जाती हैं। बच्चे अपने मैले कुचले कपड़े पहने हुए ही वहाँ पहले से खड़े रहते हैं बस के इतंज़ार में। एक बस एक दिन में चार स्पॉट कवर करती हैं। हरेक स्पॉट पर दो घंटे बच्चों को पढ़ाया जाता हैं। रोज़ाना तय समय पर बस पहुंच जाती हैं। आसपास रहनेवाले बच्चे वहाँ पहले से मौजूद रहते हैं। जो बच्चे कुछ दूरी से वहाँ आते हैं उन्हें बस घरों से लेकर आती हैं। किसी भी सरकारी खुली ज़मीन पर चटाई बिछाकर इन बच्चों को बिठाया जाता हैं। बच्चे पहले प्रार्थना करते हैं और फिर पढ़ाई की शुरुआत।


सुबह-सुबह दिल्ली के गोल मार्केट के पीछे कालीबाड़ी के दिल्ली जल बोर्ड के कैम्पस के बाहर कुछ बच्चे कॉपी-पेन लेकर खड़े हुए थे। गंदे मैले से कपड़े पहले बच्चे नहाए हुए लग नहीं रहे थे। बस आई और उसमें से कुछ बच्चे उतरे साथ में दो आदमी भी एक बस का ड्राइवर और दूसरा इस कार्यक्रम का को-ओडिनेटर। बच्चों को कैम्पस में चटाई बिछाकर उस पर बिठाया गया। फिर बच्चों ने प्रार्थना की और ब्लैक बोर्ड ख़ुद ही खड़े किए। मैडमजी आई और बच्चों की पढ़ाई शुरु हो गई। बच्चों की उम्र अलग-अलग थी। कोई 10 साल का, तो कोई 8 साल का, तो कोई 14 साल का। सबको हिसाब-हिसाब से मैडम पढ़ाती जाती हैं। दो घंटे पूरे होते है और इसके बाद बच्चों को बिस्किट बांटे जाते हैं। फिर सारा सामान समेटकर आसपास से आए बच्चों को छोड़ते हुए बस निकल पड़ती हैं अगली स्पॉट के लिए। ये सरकारी योजना सरकार एनजीओ के ज़रिए चला रही है। सरकार ने ये बसें इन एनजीओ को दी है। एनजीओ में काम करनेवाले सरकार की इस योजना को चला रहे हैं। बातचीत के दौरान पता चला कि सरकार की योजना में बच्चों को कुछ खिलाना शामिल नहीं। लेकिन, बच्चों को इन चलते फिरते स्कूलों तर लाने के लिए लालच देना ज़रूरी है और पढा़ई के बाद मिलनेवाला खाना वही लालच है। ये एनजीओ समय-समय पर बच्चों को घूमाने भी ले जाता है। स्वास्थ्य शिविर भी एनजीओ ख़ुद लगाते हैं। इन स्कूलों में आनेवाले बच्चे ख़ुद यहाँ तक आते हैं। इन बच्चों के माता-पिता सुबह से काम पर निकल जाते हैं और रात को लौटते हैं। ऐसे में ये बच्चे दिनभर क्या काम करते हैं माता-पिता को कुछ मालूम नहीं होता। ये चलते फिरते स्कूल बच्चों को प्राथमिक लिखना-पढ़ना सिखाने का काम करते हैं। अगल बच्चा पढ़ना चाहे तो उसे स्कूल में एडमिशन भी दिला देते हैं। सरकारी की ये योजना एक बेहतर शुरुआत हो सकती हैं। लेकिन, इसे चलाने के लिए ये एनजीओ पर निर्भर है। एनजीओ की नीयत पर हरेक को थोड़ा-सा शक़ बना ही रहता है। वो क्या काम करते हैं कैसे करते है, सरकार को लूटते है, पैसा खाते हैं सब कुछ मन में चलता रहता है। मैं अपने काम के सिलसिले में एनजीओ में काम कर रहे लोगों से मिलती रहती हूँ। सरकार हो या फिर कोई कॉर्पोरेट कंपनी अपनी समाज सेवा इन एनजीओ के ज़रिए ही चलाती है। मुझे नहीं पता कि ये लोग कितने ईमानदार होते हैं या फिर कितने बेईमान लेकिन, इसने मिलकर और इनके काम को देखकर लगता है कि भले ही बेईमानी से काम कर रहे हो लेकिन, किसी का भला तो हो ही रहा है।

9 comments:

anshumala said...

मेरी एक मित्र आज से चार साल पहले वाराणसी के एक नामी कांलेज मे गेस्ट लेक्चरर के तौर पर पढाती थी। वो वेतन के तौर पर 3000 लेती थी और हस्ताक्षर 5000 पर करती थी।सरकार ने 5000 वेतन तय किया था इसलिए पर वो मिलते नही थे। अनुभव के लिए वो काम करना उनके लिए जरुरी था। एक इतने पढे लिखे व्यक्ति के साथ जब यह व्वहार हो रहा था तो एक गरीब साक्षर की क्या हालत होगी। गरीब बच्चो को साक्षर बना कर या 1 2 दर्जा पढा कर उनका कोई भला नही होने वाला है।

Dipti said...

ये सोच आपकी हो सकती है। मेरा आपसे बस इतना ही कहना है कि पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती हैं। कही न कही कैसे न कैसे ये काम आ ही जाती है। इतना नकारात्मक रवैया वो भी दूसरों के लिए ग़लत है।

दिगम्बर नासवा said...

SACH HAI ....... AAJ KE DOUR MEIN JAHAA PAISE KHAA KAR BHI KOI KAAM NAHI KARNA CHAAHTE VAHAAN KOI TO HAI JO KAAM KAR RAHA HAI ..... IS BAAT KI TAAREEF JAROOR HONI CHAAHIYE ......

जय पुष्‍प said...

दीप्ति जी इस तरह का प्रयास तो पैच वर्क से संतोष कर लेने का प्रयास है और स्‍वयं को यह दिलासा दे लेन का प्रयास है कि चलो कुछ लोग तो हैं जो कुछ ठीक ठाक काम कर हरे हैं या दुनिया में कुछ तो अच्‍छा है।
जरूरत तो यह बताने की है कि आज शिक्षा और रोजगार हर आदमी का अधिकार है। बच्‍चों को पढ़ाने जाने वाले शिक्षक उन्‍हें यह थोड़े ही बताते होंगे। उल्‍टा वे तो सरकार की तारीफ ही करते होंगे कि सरकार ने आपके लिए हमें भेजा है। अगर सरकार अपनी लूट की कमाई में से बेहद थोड़ा सा हिस्‍सा इन बच्‍चों को पढ़ाने और चंद लोगा कुछ पैसा उन्‍हें बिस्‍कुट खिलाने पर खर्च कर रहे हैं तो यह एक बहुत बड़ी लूट पर समाजसेवा का वर्क चढ़ाने के बराबर है और एक धोखे के समान है।
हमें इस धोखे की असलियत को लोगों को सामने लाना चाहिए न कि दिल को तसल्‍ली देकर निष्क्रिय हो जाना चाहिए।

इस तरह की चीजें भला कम और नुकसान ज्‍यादा करती हैं। क्‍योंकि वे शैतान के चेहरे पर अच्‍छाई का मुलम्‍मा चढ़ाती हैं। एनजीओ वाले बड़ी मुस्‍तैदी से आज यह भूमिका अदा कर रहे हैं और लोगों को सच्‍चाई से गुमराह कर रहे हैं।

Dipti said...

मैं दिल को दिलासा देने के लिए ये बात नहीं कह रही हूँ। अगर हरेक इंसान बेइमान है और बुरी नीयत से काम कर रहा है तो आप आगे आ जाइए। जो कि आप करेंगे नहीं। मेरा कहना केवल इतना है कि कैसे भी हो कही न कही कुछ भला हो रहा है। बच्चों को बिस्कुट स्कूल तक लाने के लालच में ही मिल रहे हो लेकिन, मिल तो रहे हैं। क्या आप ये जानते हैं कि ये बच्चे भूख लगने पर कचरा तक खा लेते हैं। अपने स्तर पर हरेक इंसान समाज के लिए योगदान कर सकता है। अगर आप नहीं कर रहे हैं तो कम से कम दूसरों को गरियाये तो नहीं।

रामकुमार अंकुश said...

आपकी बात अपनी जगह बहुत सही है. सच तो यह है जो कार्य आज सरकार से नहीं हो पा रहा है वह एन जी ओ बखूबी कर रही हैं .
सभी एन जी ओ भ्रष्ट नहीं हैं और सभी एन जी ओ कुछ न कुछ बेहतर जरूर कर रहे हैं.
लेकिन इनके कुछ स्याह पहलू भी हैं. जो एक पत्रकार के रूप में आप अच्छी तरह से जानती हैं . उन स्याह पहलुओं को हमें उजागर करना पड़ेगा
समसामयिक पहलुओं को सामने लाकर आप एक बेहतर दिशा में बढ़ रहीं हैं
चलती रहिये अपनी अस्मिता के साथ ....

shivraj gujar said...

bahut hi achha prayas hai. aise parayason ko protsahan mile to nirksharta ka kalank hamesha ke liye mit sakta hai. badhai.

Randhir Singh Suman said...

nice

Arshia Ali said...

सही कहा आपने। इस देश में अगर कुछ काम हो रहा है, तो वह छोटे मोटे एनजीओ की ही देन है।
करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?