Wednesday, December 16, 2009

बच्चे पालना बच्चों का खेल नहीं...

एक समय था जब बच्चे यूँ ही पैदा हो जाते थे बिना किसी प्लानिंग के। शादी हुई नहीं कि लोग पूछना शुरु कर देते थे कि गुड न्यूज़ कब तक सुनाओगे। खैर, तब तक बच्चे यूँ ही पल जाया करते थे शायद। फिर शुरुआत हुई प्लानिंग की। बच्चे प्लान करके पैदा होने लगे। जैसे कि आर्थिक स्थिति कैसी है बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल पाएगी या नहीं। बच्चों में अंतर के पीछे स्वास्थ्य एक बहुत कारण था। लेकिन, आज दूसरा बच्चा अफ़ोर्ड करनेवाली चीज़ होती जा रही हैं। आपके पास इतना पैसा है या नहीं कि आप दूसरे बच्चे को संभाल पाएंगे बड़ा मुद्दा है। आजकल सब कुछ ईएमआई पर चलता है। कार, घर, टीवी सबकुछ एक मुश्त ले आओ और ज़िंदगीभर चुकाते रहो। बच्चों के साथ ऐसा कुछ नहीं है। ईएमआई कभी कही थम जाती है। लेकिन, बच्चों को पालना तो किसी बनिए से लिया गया उधार होता हैं जो कभी कम तो नहीं होता है बढ़ता ज़रूर जाता हैं। खैर, बच्चों के पालन पोषण के बारे में मेरी समझ इतनी ही है कि कुछ माँ-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई से लेकर खेलकूद और गतिविधियों के लिए बहुत परेशान रहते हैं। जैसे कि आजकल टीवी पर दिखाई देनेवाले माता-पिता। जोकि एक अच्छे स्कूल में बच्चों के दाखिले के लिए सुबह से लाइन में लगे रहते हैं। दूसरे वो जोकि ये मानते हैं कि परेशान होने की ज़रूरत नहीं बच्चा बड़ा होकर ख़ुद अपना सही-ग़लत तय कर लेगा। इसका उदाहरण हैं मेरे पापा। पापा ने कभी हमारे स्कूल या कॉलेज की चिंता नहीं की। वो हमेशा यही कहते थे कि बच्चे अपना रास्ता ख़ुद बना लेंगे। बस उन्हें एक सही आधार की ज़रूरत है। बच्चों के लिए माँ-बाप की ये चिंता उनके नर्सरी में दाखिले से शुरु होती है और उनकी शादी तक बनी रहती हैं। यही वजह है कि शादी के विज्ञापनों में भी माँ-बाप सुन्दर गोरी लड़की और हैन्डसम और मोटी तनख्वाह वाले लड़के खोजते रहते हैं। ऐसे में मेरे पापा हमेशा से ही मेरे लिए कहते थे कि चिंता मत करना कोई तो ऐसा होगा ही जिसे कॉन्वेन्ट में पढ़ी-लिखी नहीं बल्कि हिन्दी माध्यम में पढ़ी हुई लड़की पसंद आएगी। बीमा कंपनी के विज्ञापन भी ऐसे चिंतातुर माँ-बाप की चिंता को बढ़ाने का काम करते हैं। कही कोई सुखीलाल और दुखीलाल बनकर बच्चों की चिंता में डूबा है तो कही बच्चा ख़ुद ही अपने पिता से पूछ रहा है कि मेरे फ़्यूचर के बारे में क्या सोचा है या फिर बाप छः साल के बच्चे को ही चेकोस्लोवीकिया बोलना सिखाता है। आज के वक़्त में बच्चे की प्लानिंग के लिए माँ की बेहतर शारीरिक स्थिति से ज़्यादा ज़रूरी चीज़ बैंक बैलेन्स की बेहतर स्थिति...

2 comments:

rashmi ravija said...

बहुत ही सामायिक आलेख....इतना ही नहीं...आजकल तो बच्चे माँ-पिता के रिटायर होने की राह भी देखने लगे हैं...कि दोनों तो नौकरी पर हैं....उनके बच्चों को पलेगा कौन??....
अपना घर खरीदने का सपना,भी बच्चों की प्लानिंग में एक अहम् भूमिका निभाती है...हर एक साल में घर बदलने के चक्कर के साथ स्कूल की समस्या भी होती है...पुरानी पीढ़ी को ये सब मुसीबतें नहीं झेलनी
पड़ती थीं...और उनकी आकांक्षाओं के दायरे भी सीमित थे.

अजय कुमार झा said...

बडा ही कडवा सच सामने रख दिया समाज का