Monday, March 22, 2010

भैया अब मुझे नहीं मारता है...

माँ साब नहीं रही। जैसे ही ये मैंने सुना मेरे मन में बस एक ही बात आई कि अब मुझसे कौन बार-बार पूछेगा कि- भैया अब तूझे मारता तो नहीं हैं...
मुझे वो हमेशा से ही बूढ़ी ही याद है। हम जब भी रतलाम जाते पापा के दोस्त भुवनेश अंकल के घर ही रूकते। वो रेल्वे में काम करते थे। उनकी मां जिन्हें सब माँ साब कहते थे उनके साथ ही रहती थी। बचपन में तो हम बच्चे अपने में ही मगन रहते थे। लेकिन, जैसे-जैसे बड़े हुए हमारा वहाँ जाना कुछ कम होता गया। अब खेलना भी कम ही होता था। लेकिन, माँ साब के दिमाग में हमारी वही बचपनवाली यादें ही थी इसलिए वो मुझसे पूछती कि भैया अब तुझे मारता तो नहीं हैं। मैं हंसकर कहती नहीं मारता। थोड़ी देर बाद फिर वही सवाल वो पूछती और मेरा वही जवाब होता। बिना दांतवाली वो ख़ूबसूरत हंसी के साथ वो बार-बार मुझसे पूछती और बार-बार मैं वही जवाब देती रहती। कल रात पापा ने बात-बात में बताया कि माँ साब नहीं रही। मेरे मुंह से झट से निकला कि वो देवआनंद से कम्पीटिशन नहीं कर पाई। खैर, उनकी उम्र नब्बे साल के आसपास थी। उन्हें यूट्रैस और आहार नली का कैंसर हो गया था। माँ साब जब तक रही वो शान से रही। वो सफेद झक्क साड़ी पहनती थी। ख़ुद ही उसे धोती थी। गर्म पानी का एक टब उन्हें नहाने के लिए चाहिए रहता था। लक्स से नहाती थी और क्राऊनिंग ग्लोरी से सिर धोती थी। लेक्मे का सनस्क्रीन लगाती थी। उनसे जब भी उम्र पूछो बताती थी देवआनंद से एक-दो साल ही बस बड़ी हूँ। माँ साब को सुन्दर रहना और सुन्दर लोग पसंद थे। यही वजह थी कि उन्होंने अपनी बहू सुन्दर चुनी थी और मेरी मम्मी भी ख़ूबसूरत होने की वजह से उनकी पसंदीदा थी। वो खाने-पीने की बहुत शौकिन थी और हमेशा ही कुछ विशेष बनवाती या बनाती रहती थी। मेरे लिए वो एक आदर्श थी। बूढ़ापे को इंसान कैसे एक बोझ नहीं बल्कि मज़ा मानकर जी सकता हैं वो सिखाती थी। हमेशा हंसते हुए लोगों से मिलती थी और मुझसे तो बस यही पूछती थी कि भैया अब मारता तो नहीं हैं...

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