दिल्ली में चलनेवाली मैट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए आरक्षित अलग कोच कई पुरुषों को ग़लत लगता है। पुरुषों की दलील है कि महिलाएं तो कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। तो फिर क्यों अब वो अलग कोच चाहती है। महिलाओं की बराबरी पुरुषों को कितनी पसंद है और कितनी नापसंद इसका जवाब तो कोई पुरुष ही दे सकता है लेकिन, महिलाओं की हिम्मत को उनकी अकड़ और उनकी परेशानियों को उनकी ढाल माननेवाले पुरुषों के लिए ही एक सर्वे हुआ है। अगर वो चाहे तो इस लेख को पढ़ने के बाद महिलाओं की तकलीफ़ों को समझने और सही मानने की एक नए सिरे से कोशिश शुरु कर सकते हैं...
गैर सरकारी संगठनों की ओर से हुए एक सर्वे के मुताबिक़ भारत में केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं को ही माहवारी के दौरान साफ़-सुथरे नैपकिन उपयोग के लिए मिल पाते हैं। ये आंकड़ा चौंकानेवाला है। कम से कम मेरे लिए। शहरों में रहनेवाली और जीने के लिए ज़रूरी चीज़ों को आसानी से पा लेनेवाली मुझ जैसी लड़की के लिए ये आंकड़ा चौंकाने के साथ डराने का भी काम कर रहा है। देश की मात्र 12 फ़ीसदी महिलाएं नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती है। संभव है कि ये महिलाएं मुझ जैसी शहरी ही हो। मतलब कि गांव और कस्बों में हर महीने महिलाओं को चार से पाँच दिन बद से बदतर हालात में गुजारने होते होंगे। बेहतरीन क्वालिटी और हाईजीनिक नैपकिन्स के इस्तेमाल के बाद भी कई बार दर्द और परेशानी जब सहन नहीं होती है तब उनकी क्या हालत होगी जो कपड़े या फिर पॉलीथीन का इस्तेमाल करती हैं। इन दिनों में साफ सफाई के साथ शारिरीक तौर पर आराम बेहद ज़रूरी माना जाता है। ऐसे में सर्वे के मुताबिक़ कई महिलाएं इस दौरान राख या रेत का भी प्रयोग करने के लिए मजबूर है और काम उतना ही जितना रोज़ाना होता है। राख या रेत के इस्तेमाल से कई महिलाओं को घाव हो जाते हैं और कई तरह की बीमारियाँ भी हो जाती हैं। गांवों में महिलाओं को इस दौरान अछूत मान लिया जाता है। कोई उन्हें छूता तक नहीं है और न ही उन्हें किसी मंगल कार्य में शामिल होने दिया जाता हैं। माहवारी के दौरान घर के काम या किचन में घुसने की मनाही के पीछे मूल वजह महिला को आराम देना और स्वच्छता को बनाए रखना ही होगी, जो आगे चलकर रूढ़ीवादी सोच में बदल गई। गांवों से इतर शहर में रहनेवालों के लिए तो टीवी पर हर ब्रेक के दौरान आनेवाले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन को देखकर तो ये आभास होता है कि अब तो ये एक बेहद सामान्य सी बात है कि सभी को इसके बारे में मालूम है और महिलाएं अब इसका इस्तेमाल भी करती हैं। लेकिन, सच तो ये है कि महिला के लिए नैपकिन खरीदना परिवार के अन्य सदस्यों को एक खर्चा लगता है, उसकी मूल ज़रूरत नहीं। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर पुराने कपड़ों को जोड़कर नैपकिन बनाने की शुरुआत की है जिसकी क़ीमत 1 रुपए प्रति नैपकिन पड़ेगी। लेकिन, जहाँ महिला को पहनने को कपड़े और खाने के लिए पैसे ना हो वहाँ एक रुपए का नैपकिन भी बहुत बड़ी और मंहगी बात हैं। कई बार मुझे लगता है हम सच में आगे बढ़ रह रहे हैं। देश की महिलाएं पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही है। बैंकों की सीईओ महिलाओं की मुस्कुराती तस्वीरों को देखकर लगता है कि महिलाएं अब किसी बात में पीछे नहीं। लेकिन, इन्हीं ख़बरों के बीच छुपी ये एक कॉलम की ख़बर सर से पैर तक एक झुरझुरी फैला देती है।
1 comment:
यहाँ आपने 2 अलग अलग बातें एक साथ जोड़ कर रखी हैं। एक तरफ़ आपने मेट्रो में महिलाओं को रिज़र्व कोच मिलने से पुरुषों को होने वाली परेशानी की बात करी है और दूसरी तरफ़ 'छोटे शहरों' में महिलाओं को नैपकिन जैसी मूलभूत सुविधाएं ना मिलना परेशान कर रहा है। दीप्ती जैसा कि मैं आपके बारे में समझता हूँ, आप शहरी और रूरल दोनों के माहौल से वाकिफ. हैं। पर यहाँ इन दोनों बातों को एक साथ कहने का कोई तुक नहीं बनता। मैं ज़रूर मानता हूँ कि आपकी दोनों कही बातें सहीं हैं पर ये दोनों अलग अलग परिवेश की सच्चाइयाँ हैं। जिन महिलाओं की यहाँ बात हो रही है, वो महिलाएं पुरुष के साथ कँधे से कँधा मिलाना तो दूर बल्कि किसी पुरुष के बिना बाहर निकलने का भी नहीं सोच सकतीं। मज़े की बात यह है कि लेडीज़ कोच की सबसे ज़्यादा आवश्यक्ता जिन जगहों पर है, वे वहीं पर नहीं हैं (जैसे कि यूपी के कस्बों और शहरों में), दिल्ली में, मैं ये मानता हूँ कि सत्री को पुरुष के बराबर का दर्जा प्राप्त है (अत:दिल्ली में लेडीज़ कोच की इतनी ज़रूरत नहीं है :P).. तो ज़रूरत है उन छोटे शहरों की महिलाओं के सशक्तीकरण की, ना कि लेडीज़ कोच शुरू करने कि जिससे कि महिलाओं को पुरुष के बराबर खड़ा करने की बजाय उन्हे एक खुबसूरत डिब्बे में डाल दिया जाये जैसे कि किसी भेड़िये से बचाने के लिये निरीह भेड़ों को बाड़े में रख दिया जाता है।
:)
Post a Comment