सुबह कितनी भी जल्दी उठ जाओ देर तो हो ही जाती
है। ऐसे में बस स्टॉप पर भागकर पहुंचना और बस को पकड़ना उससे भी कठिन काम। डीटीसी
की बस तो कभी मेरे लिए रूकी ही नहीं। मैं हाथ भी देती थी तब भी सर्र से निकल जाती
थी। लेकिन, ब्लू लाइन और वॉइट लाइनवाले थप्प से चलती बस पे हाथ मारते और बस रूक
जाती। मैं उसमें चढ़ती(ज्यादातर लटकती) और फिर बस चल देती। ब्लू लाइन बसों का अपनी
सवारियों के लिए ऐसे रूकना, मैं रोज़ाना, लगभग हरेक बस स्टॉप पर देखती थी। कन्डक्टर
का पैसे लेते वक्त मुस्कुराना, कौन सी सीट थोड़ी देर में खाली होनेवाली है बताना
और कभी-कभी अपनी सीट या बोनट पर बिठा देना, कभी-कभी बात कर लेना, अनजान शहर में
अच्छा ही लगता था। लेकिन, आज सुबह जब खबरिया चैनलों पर बस में हुए गैंग रेप की ख़बर
देखी तो मन को धक्का-सा लगा। साल 2006 से लेकर अब तक जितने भी ब्लू लाइन और वॉइट
लाइन के ड्राइवर, कन्डक्टर और क्लीनरों से मेरा पाला पड़ा वो सब नज़रों के सामने
घूम गए। खबर में दिखा रहे थे कि बस सफेद रंग की थी, थ्री बॉय टू सिटरवाली, उसमें
एक कैबिन था। मुझे याद आने लगा कि जिन बसों से मैं सफर किया करती थी ( और, अभी भी
कभी-कभी करती हूँ) वो सब भी तो लगभग ऐसी ही होती है। कई बार देर शाम को मैं भी
इक्का-दुक्का लोगों के साथ उसमें सफर करती हूँ। मैं डर-सी गई। इस घटना ने मेरे
विश्वास को कहीं न कहीं हिला दिया। उनकी आत्मीयता के पीछे अब शायद में हैवानियत को
खोजने लगूं। और, उससे भी बड़ी बात ये कि शायद वो भी अब मुझे या मेरी ही तरह किसी
और लड़की को देखकर मुस्कुरा न पाएं। हमारी आखों में बसे डर को समझ जाएं। इस तरह की
वीभत्स घटना एक खोखले और कुरुप समाज का चेहरा तो दिखाती ही है। लेकिन, साथ ही साथ
अच्छे और सभ्य समाज और उसमें रहनेवाले लोगों को खुलकर व्यवहार करने से रोकती भी
है...
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