काय पो छे कल देखी। लगभग नए, युवा और किसी फिल्मी घराने से ना आनेवाले कलाकारों को अच्छा अभिनय करते देख अच्छा लगा। अभिषेक कपूर की दूसरी फिल्म होने के नाते ये उनकी अच्छी कोशिश है। कुछ बेहतरीन इसलिए नहीं क्योंकि इस ढर्रे को पहले ही कोई बना चुका है। अब तो बस उस सांचे से चीज़ें निकल रही है। मानना पड़ेगा सांचा बहुत बढ़िया है। फिल्म की शुरुआत में ही ये समझ आ जाता है कि युवाओं की जोश से भरी इस कहानी में भी मुझे आंसू टपकाने के कई मौक़े मिलेंगे। फिल्म खत्म होने तक मेरा गला भर्राया हुआ था। सुशांत सिंह राजपूत तो खैर है मेरे लिए अगला शाहरूख। इस फिल्म को देखकर ये लगा कि गुजरात के युवा ही नहीं बल्कि हरेक इंसान के लिए वो दो साल कितने भयावह रहेंगे होंगे। ऐसे में उन घटनाओं से उबरने के लिए उन्हें सलाम। आखिर में चेतन भगत की कहानी। जोकि मुझे किताब की शक्ल में भी अलग-अलग होते हुए भी एक सी लगती है। दुकान के ढह जाने के बाद, दोस्त के मर जाने के बाद भी, सफलता गोविंद के पीछे झक मारकर आ जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे फुन्सुक वांगडू मतलब की रैन्चो की डिग्री किसी और की दीवार पर लटक जाने के बाद भी सफलता उसका पीछा नहीं छोड़ती हैं। शायद में बहुत सामान्य हूँ और मेरे रिश्तेदार और दोस्त भी। इसलिए मैंने ऐसी सफलता देखी नहीं हैं जो किसी का इतनी शिद्दत से पीछा करे। चेतन भगत की कहानी थोड़ी-थोड़ी सूरज बड़जात्या की नए कलेवर और एक सेक्स सीनवाला स्क्रीनप्ले लगता है। बाक़ी फिल्म अच्छी, मुझे रूलानेवाली और सुशांत सिंह जैसे कलाकार के लिए एक बेहतरीन शुरुआत है।
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