दिल्ली के जिस क्षेत्र में मैं रहती हूँ और
घूमती-फिरती हूँ उसमें एक भी हिन्दी किताबों की दुकान नहीं है। कनॉट प्लेस के
इलाके में तो अंग्रेज़ी के उपन्यास और नई किताबें फुटपाथ पर ही मिल जाती है। और,
हिन्दी का ये हाल है कि किसी बड़े से पुस्तक भण्डार में भी कुछेक किताबें वो भी
प्रेमचन्द्र या शरतचन्द्र की ही मिल पाती है। नए लेखक जैसे हिन्दी में आ ही न रहे
हो। ऐसे में दिल्ली में लगनेवाला पुस्तक मेला एकमात्र सहारा रहता है। हर साल वहाँ
से मैं इतनी किताबें खरीद लेती हूँ कि सालभर तक पढ़ सकूँ। पिछले साल मैंने तय किया
था कि कम से कम एक मेरे लिए अनजान लेखक कि कोई रचना ज़रूर खरीदूंगी। मैंने लक्ष्मण
गायकवाड़ की उचक्का खरीदी थी। मुझे नहीं पता था कि लेखक कौन है और ये उपन्यास किस
बारे में हैं। मैंने बस खरीद ली थी। मैं पिछले एक हफ्ते से उस पढ़ रही हूँ। आधा
पढ़ चुकी हूँ... पढ़कर महसूस हुआ कि कैसे इतना अहम उपन्यास यूँ छुपा हुआ था। ये
लक्ष्मण गायकवाड़ की आत्मकथा मानी जा सकती है। महाराष्ट्र में पले-बढ़े लक्ष्मण
उठाईगीरों की जाति से आते हैं (ऐसे भी कोई जाति होती है मुझे नहीं मालूम था)। वो
अपनी पूरी जाति में तब तक के अकेले पढ़े-लिखे सदस्य थे। एसएससी पास लक्ष्मण
गायकवाड़ की लिखी हुई ये कृति मुझे अब तक पढ़ी मेरी सभी आत्मकथाओं में सबसे सच्ची
और साफ लग रही है। बिना किसी लाग-लपेट और शब्दों के जाल के सीधे मन की बातें इसमें
लिखी हुई है। केवल इस रचना को पढ़कर आप एक जाति की हालत, समाज का दोहरा व्यवहार और
अभाव में भी जी लेने की कला को समझ सकते हैं। लेकिन, हिन्दी के प्रति हिन्दीवालों
के रूखेपन का ही ये नतीजा है कि इतनी सुन्दर कृति पर किसी की कोई खास नज़र पड़ी ही
नहीं है। अगर पुस्तक मेले में जाना हो तो इस पर एक बार नज़र ज़रूर डाले।
राधा-कृष्ण पेपरबैक से प्रकाशित इस उपन्यास का नाम याद कर लिजिए- उचक्का।
2 comments:
Blog Padha, achchha laga. Uthaigeer jati ke bare mein sun kar mujhe bhi aashcharya hua. Isliye nhi ki yeh hote hain,Isliye ki ye abhi bhi hain.
bada hi saada and pravhavi review... kahi mili to dekhenge...Uchakka
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