Tuesday, April 23, 2013

दो तरह की सोच... दो तरह के विज्ञापन...


विज्ञापनों में दिखाए गए परिवार, रिश्ते और सामाजिक ताने-बाने को अगर सच माना जाए तो समाज कितना रूढ़ीवादी, डकियानूसी फिर भी हसीन और सुखी हो जाएगा।


    खाना बनाने में इस्तेमाल होनेवाले सभी तेल जिनमें अल्फा, बीटा, गामा टाइप की चीज़ें होती हैं। वो सभी केवल पुरुषों खासकर पतियों और पापाओं की सेहत को ध्यान में रखकर खरीदी जाती हैं। विज्ञापनों के मुताबिक़ कभी किसी महिला मतलब कि माँ या पत्नी को सेहतमंद खाने के तेल की ज़रूरत नहीं। हाँ, सर में लगनेवाला हरेक तेल उनके लिए ही बनाया गया है। जैसे बालों का घना और स्वस्थ होना महिलाओं के लिए ही ज़रूरी है। आखिर सुन्दरता का जो मामला है।


     ऐसे ही कुछेक विज्ञापन बर्तनों की रेंज और बर्तन धोने के  साबुनों के हैं। महिलाओं को केन्द्रित कर बनाए गए हर ऐसे विज्ञापन में काम का जल्दी होना, खाने का स्वादिष्ट होना या फिर साफ-सफाई का होना अहम होता है। ये मान लिया जाता है कि ये तो महिलाओं का ही काम है, जोकि हमारे उत्पादों से और निखर रहा है। इसके विपरीत जब भी ऐसे विज्ञापनों में पुरुषों को शामिल किया जाता है, तो हर बार उन्हें लार्जर देन लाइफ प्रस्तुत किया जाता है। कुछ ऐसे कि खाना बनाकर या बर्तन धोकर उन्होंने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया हैं। इन कामों को करने के पीछे उनका प्रेम महिमा मंडित किया जाता हैं।


       ऐसे ही कुछ विज्ञापन है ओट या फिर कॉर्नफ्लेक्स जैसी चीज़ों के। एक ओर जहाँ विज्ञापनों में ये खाद्य पदार्थ महिलाओं को स्लिम और सुडौल बनाने का काम करते हैं। वहीं पुरुषों को ये दिल की बीमारियों और तनाव से बचाते हैं। ऐसे विज्ञापनों में मैंने आज तक कभी किसी पुरुष को डाइटिंग करते या महिला को तनाव से लड़ते नहीं देखा।


        बच्चों के उत्पादों के विज्ञापन तो इस मामले में और भी रोचक है। विज्ञापन में पापा हमेशा बच्चे के साथ मस्ती मारते हैं या फिर उन्हें ज्ञान की बात सिखाते हैं। वहीं मम्मियाँ हमेशा उनकी लंबाई, इम्यूनिटी, पढ़ाई और ऐसी ही गंभीर चीज़ों की चिंता में घुली हुई नज़र आती हैं।   

1 comment:

rashmi ravija said...

दिमाग ताक पर रख कर बनाए जाते हैं , ये विज्ञापन
जितने लोग मिलकर ऐसे विज्ञापन बनाते हैं, वे ही एक बार अपने अपने घ र्की अल्सियत पर एक नज़र डाल लेते.