Thursday, August 8, 2013

शहरी शिष्टाचार...

तुमको उतरना है क्या...
नहीं। आप ठीक से खडे रहिए... और मुझे भी रहने दीजिए...
अरे जब उतरना नहीं है तो क्या तुम मुंह बनाती हो। बस में ऐसे ही होता हैं...
(मन में लगता है कि बस अब मैं बोलना बंद कर दूँ। लेकिन, उसका बोलना और बदतमीज़ी बंद नहीं होती हैं।)
मैं चिढ़कर बोलती हूँ अब मुंह बंद करेगा तू कि, लगाऊं सौ नंबर। बताऊं तुझे कि बस में कैसे खड़ा हुआ जाता हैं और बात कैसे कि जाती हैं...
इस बार वो सहम जाता हैं। बड़बड़ाता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगता है।
मन में अजीब-सी कोफ्त और चिढ़ पैदा हो जाती हैं। लगता है कि जैसे ये शहर और यहाँ के लोग जानबूझकर आपके अंदर की मासूमियत और शिष्टता को खत्म कर रहे हैं। यहाँ किसी को आप कह देना लोगों को शिष्टाचार नहीं बल्कि कमज़ोरी लगने लगता है। अगर पहली ही मुलाक़ात या पहली ही बात में संबोधन आप हुआ तो मानिए कि संबोधन करनेवाला डरपोक हैं और तुम के साथ बात शुरुआत करके उसे दबाया जा सकता हैं। ये मेरा निजी अनुभव रहा है। कई बार किसी अंजान की बात का जवाब जैसे ही मैंने आप से दिया वो बदतमीज़ी पर उतर आया। पहले तो मैं लड़ाई भी आप ही आप में कर लिया करती थी। लेकिन, कुछ दिनों से जैसे ही जवाब में तू शामिल किया है सामनेवाला सहम जाता हैं। शिष्टाचार के दायरे को तोड़ने में तकलीफ़ होती है। साफ़-साफ़ लगता है कि बहस जबरन की हो रही हैं। लेकिन, अगर आपकी चुप्पी या आपकी बोली को कोई आपकी कमज़ोरी मान ले तो ये भी तो गंवारा नहीं।


  

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