Thursday, October 31, 2013

सुबह से शाम होते चेहरों के बीच...

रोज़ाना, सुबह-शाम मैट्रो में सफर करते हुए कई चेहरों से टकराती हूँ। कइयों की मासूमियत, कइयों की निराशा, कइयों का गुस्सा और कइयों की शून्यता सब कुछ मेरे साथ घर ले आती हूँ। कभी किसी दिन चेहरा खिला हुआ लगता है, अगले ही दिन उदास नज़र आ जाता हैं। ऑफिस जाते वक्त जोश में दिखाई दे रही आँखें शाम होते-होते बोझिल महसूस होती हैं। मैं भी तो एक-सा ही चेहरा हूँ... कभी खुश तो, कभी उदास...




सुबह जो खिले-खिले से लगते हैं, शाम होते-होते झल्लाए-से नज़र आने लगते हैं...

खुश हो-होकर शाम को घूमने जाने की तैयारियों में लगे चेहरे, ऑफिस से उदास-थके बाहर निकलते हैं...

माँ को बीपी की दवा खाने की याद दिलाती प्यारी-सी आवाज़, शाम होते-होते उसी माँ पर चिढ़ने-सी लगती है...

ताज़े, खिले हुए चेहरे, रात होते-होते डाल से टूटे हुए फूल की तरह मुरझा जाते है...

रात से सुबह, खुद को ढाढ़स बंधाते ये चेहरे...


रात को बिस्तर पर निढाल पड़े, फिर सुबह खिल जाते हैं वहीं चेहरे...  

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