ट्रेन चलने में बस दस मिनिट रह गए थे। वो अपनी
साइड अपर पर सामान जमा चुकी थी। खिड़की के पास अपने हिस्से का तकिया लगाकर उसने “वे
दिन” पढ़ना शुरु कर दिया। निर्मल वर्मा उसके पसंदीदा लेखक थे और वो “वे
दिन” को भी शायद तीसरी बार पढ़ रही थी। अपना फोन वो माँ से बात करने के
बाद ऑफ कर चुकी थी। अब और कोई नहीं था जिससे वो बात चाहती हो। हालांकि माँ से बात करके भी उसे चिढ़ ही हुई थी। क्योंकि माँ ने हर
बार की तरह रटी-रटाई बात कर दी थी कि घर ही आ जाती। सालों से नहीं देखा है तुझे,
बस आवाज़ ही सुन रही हूँ। बड़ी तल्खी से उसने जवाब दिया था। माँ ने बड़ी उदासी से
हैप्पी जर्नी कहा था। हालांकि उससे कई और लोग भी बात करना चाहते थे ख़ासकर
ऑफिसवाले।
हालांकि
राजधानी में कॉफी मिल जाता है लेकिन, वो ट्रेन के चलने का इंतज़ार नहीं कर सकती थी
सो उसने झट से उतरकर कॉफी खरीदने की सोची। वो लगभग चढ़ती हुई ट्रेन में कॉफी लेकर
चढ़ी। जब वो सीट तक पहुंची उसने देखा कि एक बुज़ुर्ग महिला उसकी बर्थ पर बैठी हुई
थी। एकदम हड़बड़ाई और थकी हुई। वो अपने बैग में पानी की बोतल खोज रही थी। वो
चुपचाप साइड में बैठ गई। पानी पीने के बाद जब वो बुज़ुर्ग महिला कुछ शांत हुई तो
उन्होंने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा। वो भी मुस्कुरा दी।
उन्होंने हंसते हुए कहा- “हमें लगाकि
आज तो ट्रेन छूट ही जाएगी। हर बार तो हम समय पर ही पहुंच जाते थे लेकिन, आज बेटे
को ऑफिस में आने में देर हो गई।“
वो बस मुस्कुरा दी।
इतनी ही देर में पानी की बोतलें बंटने लगी। बोतल
लेकर आए बैयरा को उसने थोड़ी सख्ती से कहा कि वो केवल कॉफी पीती है। आंटी ने उसके
चेहरे सख्ती को ध्यान से देखा और फिर मुस्कुराने लगी। इस बार उससे रहा नहीं गया
उसने पूछा- “क्या हुआ आंटी?”
उन्होंने बड़ी ही सौम्यता से कहा-
“तुम्हें देखकर मुझे मेरी बेटी याद आ गई। वो भी ऐसे ही हर बात पर
नाराज़ हो जाती है। तुम्हारा नाम क्या है बेटा?”
“अदिति...”
“अदिति... बड़ा ही सुन्दर नाम है।“
उसने पूछा “और आपका नाम
क्या है?”
वो फिर हंस दी। बोली- “अरे कई सालों
बाद किसी ने मेरा नाम पूछा है। वर्ना सब तो आंटी से ही काम चला लेते हैं। मेरा नाम
अल्का है।“
“अल्का... अरे ये भी तो बड़ा सुन्दर नाम है। मैं
आपको आंटी नहीं बोलूंगी केवल अल्का बोलूंगी।“
इस बातचीत के बीच कॉफी के लिए गर्म पानी आ
चुका था।
अल्का एक रिटायर्ड टीचर थी और अपने पति के साथ
रहती थी। वो दिल्ली अपने बेटे से मिलने आई थी। मिलने भी क्या तीमारदारी के लिए आई
थी। बेटा अकेले दिल्ली में रहता है और पिछले कुछ दिनों से बीमार था। सो, हड़बड़ी
में वो दिल्ली आ गई थी। अल्का के पति बेहद आरामपसंद थे वो ऐसी हड़बड़ी में कहीं की
यात्रा नहीं करते थे। ऐसी किसी भी यात्रा के बाद उनकी तबीयत बिगड़ जाती थी सो,
अल्का ने अकेले ही आना तय किया था। अल्का के सभी फैसले आभासीय रूप में खुद के लिए
करें हुए और आत्मनिर्भर से लगते थे। लेकिन, असलियत में हरेक फैसला परिवार के किसी
न किसी सदस्य की खुशी में ही लिया जाता था। जिस दिन अल्का ने ये तय किया था कि वो
वीआरएस ले रही है घर में सभी को आश्चर्य हुआ था।
बेटी ने फोन पर दुत्कारते हुए कहा था- “क्या
पागलपन है... क्यों ले रही हो वीआरएस अच्छी खासी नौकरी है। दिनभर व्यस्त रहती हो।
क्या करोगी घर में रहकर।“
“अब बहुत थक गई हूँ मैं। सुबह उठो, काम पर जाओ, घर
के काम देखो, रात होते होते शरीर टूट जाता है। अब मन नहीं करता इतनी मेहनत करने
का।“
सभी ने अल्का के इस फैसले का सम्मान किया। बस
अल्का ही थी जो ये जानती थी कि ये फैसला उसने अपनी थकान नहीं पति के अकेलेपन को
दूर करने के लिए लिया था। रिटायरमेन्ट उनके अकेलेपन को नौकरी के साथ-साथ दूर करना
उसके लिए दूभर होता जा रहा था। वो कोई एक काम ही कर सकती थी।
अदिति अल्का से एकदम इतर थी। तीस साल की,
आत्मनिर्भर, दिनभर काम और रातभर किताबों में डूबी रहती थी। दस साल पहले दिल्ली आई
थी और, तब से घर नहीं गई थी। क्यों नहीं गई इस बात को उसके पास कोई जवाब नहीं था।
बस रोज़ाना नियम से माँ-पापा से बात कर लेती थी। माँ बार-बार उसे घर बुलाती थी। कई
बार वो खुद ही उसके पास आने का प्रस्ताव भी रख चुकी थी। लेकिन, वो हर बार मना कर
देती थी। उसे घर जाना पसंद नहीं था। खासकर माँ का साथ। वो माँ के घरेलुपन से
परेशान थी। उसे लगता था कि माँ ने जीवन में कुछ नहीं किया। केवल घर में, पापा और
बच्चों के पीछे ज़िंदगी गंवा दी। हालांकि वो कई बार माँ को साथ में घूमने जाने का
प्रस्ताव दे चुकी थी। लेकिन, हर बार माँ घर के काम का बहाना बना देती थी। इसलिए वो
जब भी छुट्टी लेती देश के किसी नए कोने की सैर पर निकल जाती थी। दस साल में लगभग
आधा देश देख चुकी थी। निर्मल वर्मा के उपन्यास और येशुदास के गाने हर सफर में उसके
साथ होते थे। इस बार वो उत्तर-पूर्व की यात्रा पर निकली थी। अल्का और अदिति के बीच
कुछ एक-सा था तो वो था उनका स्त्री होना। अब तक ट्रेन अलीगढ़ क्रॉस कर चुकी थी।
अल्का ने बताया कि वो नौगछिया जा रही है। भागलपुर में उनका अपना घर है। वो तो
चाहती थी किसी भागलपुरवाली ट्रेन में ही जाती लेकिन, बेटे ने ज़िद्द करके इसमें
करवाया था। वो पहली बार इतने लंबे सफर पर निकली थी। वर्ना हर बार तो उनके पति साथ
होते थे। हालांकि, हर सफर पर सामान से लेकर पति का ध्यान वो ही रखती थी लेकिन,
जताती यही थी कि पति ही सब संभाले हुए है। अदिति ने बताया कि डिब्रूगढ़ जा रही है।
भारत का चाय शहर को घूमने का मन है उसका। इस बात पर अल्का को हंसी आ गई।
“कॉफी के लिए लड़ती हो और चाय शहर देखना है
तुम्हें। अरे, कून्नर जाओ... “
अदिति भी ज़ोर से हंस दी... बोली “हाँ
माँ भी इसी बात पर हंसी थी। लेकिन, मुझे चाय के बागान बहुत पसंद है। माँ क्या है
वो तो हर बात पर ही मुझे टोक देती हैं। उन्हें तो लगता है कि जब वक्त मिले घर आ
जाओ। जब तक घर में रही हूँ कहीं नहीं जाती थी मेरे साथ। हालांकि मुझे रोकती नहीं थी
लेकिन, घर पर रहना उन्हें कुछ ज़्यादा पसंद था।“
माँ के प्रति इस तल्खी से अल्का को अपनी बेटी याद
आ गई। उसे अचानक लगा कि शायद वो भी उसके बारे में कुछ ऐसा ही सोचती होगी। शायद
इसलिए ही पिछले तीन साल से वो घर नहीं आ रही है। फिर मन को उसने ये कहकर समझा लिया
कि नहीं ससुराल में बहुत व्यस्त होने की वजह शायद वो नहीं आ पा रही है। शायद क्या
यहीं बात होगी। ट्रेन इलाहबाद स्टेशन पर रुकी हुई थी।
अदिति ने पूछा “अल्का आप
कॉफी लेगी...”
अल्का ने
कहा “हाँ बिल्कुल...”
अदिति झट
से ट्रेन से उतर गई। जब कॉफी लेकर वापस आई तो देखा कि अल्का बड़े मन से “वे
दिन” पढ़ रही थी। अदिति ने कॉफी आगे बढ़ा दी।
हाथ में कॉफी पकड़े हुए अल्का ने कहा-
“निर्मल वर्मा को मैंने भी खूब पढ़ा है। एक बार तो मैं मिली भी हूँ।
गोरे से भूरे बालोंवाले...”
अदिति ने अल्का के चेहरे पर एक अजीब-सी चमक देखी।
अदिति को ऐसे देखते हुए देख अल्का झेंप गई और, अचानक चुप हो गई। इसके बाद
साहित्यकारों और उपन्यासों पर अच्छी खासी बातें शुरु हो गई। अल्का को खुशवंत सिंह
पसंद नहीं थे लेकिन, अदिति उनकी तरफ़दारी किए जा रही थी। खाने के बाद अदिति ऊपर की
सीट पर अपना बिस्तर जमाने लगी। उसे लगा कि अल्का को भी अब सोना होगा।
अल्का ने धीरे से पूछा- “क्या तुम्हें
नींद आ रही है?”
अदिति ने कहा- “नहीं मैं तो
रातभर जाग सकती हूँ। मुझे लगा कि आपको सोना होगा।“
अल्का ने कहा- “नहीं मैं भी
जाग सकती हूँ।“
दोनों
चुपचाप बैठ गई।
अल्का ने कहा- “मुझे ये एसी
बोगी पसंद नहीं। एक तो ताज़ी हवा नहीं मिलती है और दूसरा ये पर्दे लोग आपस में बात
ही नहीं करते हैं। सब एकदूसरे को बस शक की नज़र ही देखते रहते हैं।“
अदिति ने कहा- “लेकिन,
मुझे तो एसी ही पसंद है। मैट्रो से लेकर ऑफिस और पीजी तक हर जगह लोगों से ही घिरी
रहती हूँ। कहीं तो अकेलापन नसीब हो।“
“ट्रेन
जब शहरों से गुज़रती है तो शहरों की रौशनी कितनी सुन्दर लगती हैं। ऐसा लगता है कि
आप किसी अंतरिक्ष की सैर पर है...”
अल्का की ये लाइन सुनकर अदिति ने सवाल दागा- “तो
आप लिखती है...”
अल्का हड़बड़ा गई- “नहीं,
नहीं... हम्मम.. हाँ कुछ लिखा था कभी डायरी में। बस वही... कुछ यूँ ही...”
अदिति ने आश्चर्य से अल्का की ओर देखा- “तो
आपका लिखा कभी किसी ने नहीं पढ़ा है? आपके पति या बच्चों ने भी नहीं?”
अल्का ने मुस्कुराते हुए ना में सर हिला दिया।
अदिति को ये बात परेशान कर गई। कुछ देर दोनों चुप बैठी रही। फिर अचानक अल्का ने
नीचे अपना बैग खिंचा और उसमें से एक पुरानी-सी डायरी निकालकर अदिति की गोद में रख
दी। अदिति को लगा जैसे उसे कोई बेशकीमती चीज़ मिल गई हो। वो अल्का की डायरी थी। वो
डायरी जो अल्का ने 16 साल की उम्र में लिखना शुरु की थी और शादी के कुछ तीन-चार
साल बाद तक लिखती रही थी। उसके बाद अल्का ने कुछ नहीं लिखा था। आखिरी तारीख कुछ 33
साल पहले की थी। तब कि जब वो पैदा भी नहीं हुई थी। अदिति ने उसे पढ़ना शुरु कर
दिया। अल्का ने “वे दिन” थाम ली थी। दोनों
चुपचाप रातभर पढ़ती रही। बरौनी आने से पहले ट्रेन में कुछ हलचल शुरु हो गई। उस
हलचल से उनकी तंद्रता टूटी।
अल्का ने अदिति की ओर देखा और मुस्कुराते हुए
बोली- “इसके बाद मेरा स्टेशन है। मैं भी सामान ठीक कर लेती हूँ।“
डायरी में डूबी अदिति ने केवल “ह्हूहू”
कहा।
अदिति को पहली बार ये महसूस हुआ कि एक लड़की से
पत्नी और फिर माँ बनना क्या होता है। इन रिश्तों के बीच
खुद को बचाए रखना क्या होता है। अल्का जो 16 साल की थी तो बिल्कुल अदिति-सी थी।
उसे भी लिखना-पढ़ना और घूमना पसंद था। नौकरी करना और खुद पर पैसे खर्च करना सबकुछ अदिति-सा।
लेकिन, बीस की अल्का अलग थी। शादी के दो साल और गर्भ के तीन महीने उसे पूरी तरह
बदल चुके थे। अब वो घर और आनेवाले बच्चे के बारे सोच और लिख रही थी। उसे अल्का
अपनी माँ-सी लगने लगी थी। अदिति को डायरी में डूबा देख अल्का चुपचाप उठकर फ्रेश
होने चली गई। अदिति ने पूरी डायरी पढ़कर अल्का के पर्स पर रख दी थी। अल्का और
अदिति ने साथ में अपनी आखिरी कॉफी पी।
स्टेशन आने से पहले अल्का ने अदिति से वे दिन
मांगी- “मेरी “वे दिन” तो माँ के घर ही
छूट गई थी क्या तुम मुझे ये दे सकती हो।“
अदिति ने सहर्ष “वे दिन”
उसे दे दी। साथ ही उस पर अपना नंबर भी लिख दिया। स्टेशन आ चुका था अदिति अल्का को
छोड़ने नीचे उतरी।
अल्का ने अदिति से कहा कि- “वापसी
में मन हो तो मेरे घर भी आना।“
अदिति ने मुस्कुराते हुए बोला-
“हाँ लेकिन, अब सोच रही हूँ बहुत दिन हो गए माँ से मिले। शायद मैं सीधे
वही निकल जाऊँ...”
अल्का के चेहरे पर आश्चर्य था। ट्रेन बस चलने को
थी।
अदिति ने बड़ी आत्मीयता से कहा- “मुझे
मेरी, अपनी-सी माँ से मिलवाने के लिए शुक्रिया
आपका....”
1 comment:
Kuchh nhi kah saka! Kuchh kahna tha!!
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