Saturday, August 15, 2020

आशंकित युद्ध और महामारी के बीच आज़ादी की अक्षुण्णता के सवाल- राजा दुबे

 


प्रतिवर्ष हम देश की आज़ादी की सालगिरह मनाते समय आज़ादी को अक्षुण्ण बनाये रखने के उपायों पर अनुष्ठानिक ढंग से विमर्श करते हैं और ऐसा करते समय हम इन सभी उपायों का भाष्य भी करते हैं और कोशिश करते हैं कि इस सबमें हमारी यानी आम देशवासी की भूमिका भी निर्धारित हो सके. वैसे इस मामले में भी हमारी कोशिश तो इस एक गुरुतर जिम्मेदारी को सरकार पर ही ढोलने की होती है. कई बार तो देशवासियों के व्यवहार से ऐसा भी लगता है कि देशवासी सोचते हैं कि आज़ादी को हाँसिल करने क़ो जो और जितने यत्न होने थे वो सब  स्वाधीनता संग्राम में हो चुके हैं और अब हम तो इस लब्धआज़ादी को भोगने के हकदार हैं और यदि इस आज़ादी को अक्षुण्ण रखना है तो सरकार ही कुछ करे.सरकार इस अहम् अथवा यूँ कहें कि अनिवार्य जिम्मेदारी को लेकर सजग और सतर्क है अथवा नहीं इस पर भी सरसरी नज़र डालते हैं. सरकार को लेकर भी हमारी समूची प्रतिक्रिया आम निर्वाचन तक ही सीमित रहती है और तब हम यह फैसला देते हैं कि कौनसी सरकार  हमारी आजादी बनाये रखने में समर्थ है. इसी अवसर पर कभी हम सरकार को बदलने का फैसला भी लेते हैं. कभी जब मौजूदा सरकार पिछली सरकार के उन कामों का कच्चा चिट्ठा खोलती है कि किस प्रकार पिछली सरकार ने देशहित में निर्णय न लेकर हमारी आज़ादी को खतरे में डाला तब हम उस दल अथवा गठबंधन की सरकार को चुनने से परहेज भी करते हैं मगर दिन-ब-दिन या फिर किसी  एक कालखण्ड में किसी भी सरकार की नेकनियती को परखने का कोई आज़मूदा फार्मूला हमारे पास नहीं है. फिर..?  फिर क्या हम किसी एक सर्वमान्य जननायक की प्रतीक्षा करने लगते हैंं . इस देश की स्वाधीनता के तिहत्तर सालों में अपवादस्वरूप एक- दो जननायक ही हुये हैं. यानी इस जननायक की प्रतीक्षा भी दशावतार की श्रृँखला में कल्कि अवतार की प्रतीक्षा करने के मानिन्द है.

कोरोना महामारी ने देश मेंआर्थिक आज़ादी के विचार को ध्वस्त कर दिया

यदि यह मान भी लिया जाये कि देश की आज़ादी को अक्षुण्ण बनाये रखने की जिम्मेदारी सरकार की भी उतनी ही है जितनी देशवासियों यानी  जनसामान्य की है तो इस बार हमारे सामने अगला विवेच्य विषय यह होगा कि क्या विश्वव्यापी महामारी कोविद 19 यानी कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण हमारी आज़ादी की अक्षुण्णता पर प्रश्नचिह्न लगा है? जवाब है हाँ क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बड़ा दुष्प्रभाव
पड़ा है.देश में लगतार लॉकडाउन के कारण उत्पादन, रोजगार और राजस्व संग्रहण पर जो असर पड़ा उससे देश में आर्थिक आज़ादी को करारा झटका लगा और कोरोना वायरस का उदभव चीन से होने से चीन के साथ विदेशी व्यापार भी ध्वस्त होने की ओर बढ़ रहा है इससे भी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव तो पढ़ेगा और इसके जवाब में केन्द्र सरकार का -"लोकल में वोकल" और "आत्मनिर्भरता" का विचार भी अभी प्रभावी बनने
में समय लेगा.इधर उद्योग धंधों के सतत चार महीनों तक बंद रहने से उत्पादन का गैर वापसी योग्य नुकसान  ( इर्ररिवर्सिबल लॉस) भी हमारी अर्ध व्यवस्था को ध्वस्त कर चुका है. रोजगार को लेकर भी कोरोना संक्रमण से देश को भारी दुर्दिन देखने को मिले संगठित क्षेत्रों में उनमें से सरकारी क्षेत्रों में ही नौकरियाँ सुरक्षित रहीं और अधिकांश निजी और कारपोरेट क्षेत्रों में कामगारों को  वेतन कटौती का सामना करना पड़ा. . मजदूरों के अचानक बैरोजगार होने से देश में कामकाज के स्थानों से अपने इलाकों ं में लौटने से पलायन की स्थिति से देश की आज़ादी के बाद भी ऐसी बदहाली का अनुमान न लगाना और व्यवस्था में सरकार द्वारा देरी यह बताती है की इन मामलों में निर्वाचित सरकारें कितनी लापरवाह और नाकारा है.वो तो शुक्र है कि पलायन करते कामगारों की इस कठिन यात्रा में ं जनसाधारण ने एक कदम आगे बढ़ाकर मदद की. यही स्थिति विदेशों में खासकर अमेरिका में तकनीकी रोज़गार में लगे भारतीयों के सामने आई और वे अमेरिकी सरकार के रहमों करम पर टिके हैं.आज़ादी के बाद शायद पहली बार रोजगार को लेकर मीडिया इंडस्ट्रीज़ में छँटनी और तनख्वाह में कटौती की अप्रिय स्थिति बनीं. गोया कोरोना संक्रमण   से मृत्यु के आँकड़ों से ज्यादा भयावह रहा उत्पादन के घटने, बेरोजगारी के बढ़ने और मंदी का प्रकोप जिसनेआर्थिक आज़ादी के विचार (कन्सेप्ट) को ही ध्वस्त कर दिया.

चीन द्वारा थोपे गये युद्ध के माहौल ने हमारी आज़ादी की अक्षुण्णता को चुनौती दी

आज़ादी के तिहत्तर सालों में देश को कई विदेशी युद्धों का सामना करना पड़ा और इन युद्धों मे जय-पराजय का लम्बा इतिहास है मगर ऐसे समय जबकि देश विश्व के साथ-साथ कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रहा था चीन द्वारा सीमित युद्ध का महौल बनाना हमारी आज़ादी की अक्षुण्णता पर प्रहार तो था ही इससे हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता को भी चुनौती दी गई. इस घटित की मीमांसा में न जाकर केवल राजनयिक स्तर पर क्या हुआ इस पर भी यदि विमर्श करें तो हम पायेंगे की देश को आने वाले समय में पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान से और उत्तरी सीमा पर चीन से युद्ध की चुनौती मिलना तय है और यदि दुर्भाग्य से ऐसे युद्ध का विस्तार हुआ तो बहुत कुछ असम्भव के सम्भव होने अर्थात् तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका भी देखी जा रही है. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि विश्व में जो व्यापारिक संव्यवहार और रिश्तों को तरजीह दी जा रही है उसमें भारत भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है. किसी समय निर्गुट संगठन, जो बाद में गुटनिरपेक्ष
संगठन के नाम से जाना गया उसका नेतृत्व करने वाला भारत आज़ कुछ गुटों के बीच अपना मुकाम तलाश रहा है. क्या व्यापारिक मामलों में अपनी जगह बनाने में उत्सुकता दिखाता भारत अपनी राजनयिक प्रभुता के लिये कोई गंभीर कोशिश करेगा ? यदि ऐसा नहीं ं हो पाया तो हम अभी-अभी जिसप्रकार चीन के साथ युद्ध भी धकेले गये वैसे ही आगे भी धकेले जायेंगे. इस स्वाधीनता दिवस पर हमें अपनी आज़ादी को अक्षुण्ण बनाये रखने के साथ-साथ अपनी प्रभुता को भी साबित करना होगा.इस समय जिस 
प्रकार हम अमेरीकाऔर रुस के बीच राजनयिक और कूटनीतिक संतुलन तलाश रहें हैं उससे हमारी मजबूती नहीं हमारी कमजोरी जाहिर हो रही है. परमाणु निरस्त्रीकरण के
मामले में भी हमारी ढुलमुल नीति हमारे लिये एक आत्मघाती कदम साबित हो रही है. सच तो यह है कि चीन की सीमा पर आक्रामकता का उत्तर हमें  आक्रामकता के साथ ही देना होगा.देश की संप्रभुता की रक्षा के लिये हमें अपनी सार्वभौमिक राजनयिक
को बढ़ाना होगा और अपने पक्ष को प्रबलता के साथ प्रस्तुत करना होगा.केवल कहने के लिये ही नहीं संयुक्त राष्ट्र की मंशा के अनुरूप हमें भी अग्रगामी होकर यह आप्त वाक्य विश्व में प्रचारित करना होगा कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है.

आर्थिक मामलों में दुविधा और निरर्थक जुमलेबाजी से उबरना  होगा

आर्थिक मुद्दों पर लिये गये निर्णय  प्राय: दूरगामी प्रभाव वाले होते हैं फिर भी सियासी जरुरतों के चलते आर्थिक मामलों में या तो सत्ता में बैठे लोग दुविधा में होते हैं या फिर निरर्थक जुमलेबाजी में उलझे रहते हैं .आजादी के बाद पिछले तिहत्तर सालों में सभी सरकारों के आर्थिक संव्यवहार में यही बात  रही हैं.कभी आर्थिक उदारता स्वीकार्य होती है तो कभी फूटी आँख नही भाती है. इसी परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) के साथ भी  हुआ.बीमा, बैंक, फुटकर व्यापार और मीडिया ग्रुप सहित कई क्षेत्रों में सरकार ने पहले असमंजस दिखाया फिर हामी भरी. इस दुविधा और जुमलेबाजी से सबसे ज्यादा नुकसान देश की अर्थव्यवस्था का हुआ और आज़ादी के समयजिस एक मजबूत अर्थव्यवस्था का सपना हमें दिखाया गया वो इसी असमंजस के कारण दु:स्वप्न में तब्दील हो गया. कभी बाँधों का विरोध करने वाले जब देश के सत्ता शिखर पर विराजे तो उससे ऊँचे बांध बनवाये. आज़ादी के इन सात दशक में अर्थव्यवस्थाअर्थव्यवस्था को लेकर इतने बेमतलब के प्रयोग हुए कि हमारी अर्थव्यवस्था कोई आदर्श स्वरुप तो दूर की बात है एक कामचलाऊ स्वरुप भीक्षधारण नहीं कर पाई. असल में गाँधीजी ने आर्थिक आज़ादी का जो दर्शन स्वीकार करने की बात कही थी उस दर्शन की सराहना तो की मगर उसे अँगीकार नहीं किया. आर्थिक मामलों में विशेषज्ञों की उपेक्षा का हर सियासी दौर में यह आलम था कि सरकारें उनके सुझावों की तो भूरिभूरि प्रशंसा करती थी मगर उनको स्वीकार करने की बात टाल जाती थी. इस बात पर आने वाली पीढ़ी कैसे यकीन करेगी इस देश में एक सुलझा हुआ अर्थशास्त्री देश का प्रधानमंत्री रहा मगर वो  भी एक पुख्ता अर्थनीति देश को सौंपने का दायित्व  नहीं निभा  पाया . देश में कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था जो ध्वस्त हुई है उसका पुनर्निर्माण यदि समय रहते नहीं किया तो हम आर्थिक बदहाली के गर्त में चले जायेंगे. सच तो यह है की सत्ता शिखर पर बैठने वालों को कड़े आर्थिक सुधारों के लिये सभी प्रकार के असमंजस, दुविधा और जुमलेबाजी से ऊपर आना होगा.

सामाजिक समरसता से  ही मजबूत होगी हमारी आज़ादी

पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा में आई.ए.एस. के लिये चयनित मध्यप्रदेश की आयुषी जैन से जब कोरोना महामारी और लॉकडाउन से जुड़े सवाल किये गये तो आयुषी ने कहा कि इस विषम स्थिति में मजदूरों के पलायन के समय सरकार से पहले समाज ने जिस प्रकार उनकी साज सम्हाल की उससे यह साबित हुआ कि हमारी आज़ादी तभी मजबूत होगी जब देश में सामाजिक समरसता होगी.सामाजिक सद्भाव से ही हम देश को एकजुट बनाये रख सकते हैं. देश में राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक आज़ादी से ही हम अपनी संप्रभुता को बचाये रख सकते हैं.धर्म और समाज में पिछले कुछ सालों में जो असहिष्णुता बढ़ी है उससे हमारी आज़ादी की दीर्घजीविता प्रभावित हुई है. हमने इस समरसता के अभाव में दलितों के दमन और उग्र समूह द्वारा हत्या वानी लिविंग की वृत्ति भी बढ़ी है.इन परिस्थितियों में सामाजिक ढाँचे की जो आदर्श स्थिति हमें विरासत में मिली है उसे ही यदि हम यथावत कायम रखने पाने में सफल रहते हैं तो यह एक बड़ी सफलता मानी जायेगी. सामाजिक व्यवस्था की उन तमाम खूबियों को अपनाकर ही हम सामाजिक समरसता के लक्ष्य को पा सकेंगे . वस्तुत: हमने अपने निजी स्वार्थ और राजनैतिक मंतव्य से जो सामाजिक समरसता के ढाँचे को नुकसान पहुँचाया है उसकी भरपाई हमें समय रहते ही करना होगी वरना यह हमारी आज़ादी के लिये एक बड़ा खतरा साबित होगी  गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बहुत पहले ही इस बारे में हमें चेताया था कि यदि हमने समाज की समरसता को विनष्ट किया अथवा विकास की ओर बढ़ते समय कुछ वर्गों को नीचे ही छोड़ दिया तो वे आगे बढ़ने वालों को नीचे खींचकर बाधित कर देंगे.

 इस समय हमारे सामने आज़ादी को अक्षुण्ण बनाये रखने की राह में कई चुनौतियां पहले से ही थी अब महामारी और युद्ध की स्थिति ने उसे काफी बढ़ा दिया है और यदि हमने इस समय दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास नहीं दर्शाया तो उससे हम अपनी आज़ादी की अक्षुण्णता को खतरे में डाल देंगे . 

 

No comments: