Wednesday, August 20, 2008
औक़ात में रखनेवाले...
यार ये तो वही है जो महिलाओं के बारे में बकवास करती रहती है। ये कहते ही मेरे कान खड़े हो गए। स्वभाव और आवाज़ दोनों में ही मैं तेज़ हूँ। और मैंने कहा हाँ ठीक ही है, महिलाएं, उनके मुद्दे और उन पर बात करने वाले सभी बकवास ही होते हैं। ये बात कुछ दिनों से मेरे सामने लगातार आ रही है, कि महिलाओं के मुद्दे की बात होते है ही युवकों के मन उत्तेजित हो जाते है। वो बिफर जाते हैं। कुछ दिन पहले ही बातों बातों में अचानक ही मैंने एक महिला मीडिया कर्मी की बात का समर्थन कर दिया। उनका कहना था कि क्यों ऐसा नियम है कि अगर करियर को घर के लिए छोड़ना है तो वो महिला ही करें। पुरुष ना करें। अपने दोस्तों के बीच मैंने ये कई बार सुना कि हम तो एक ऐसी लड़की से शादी करेंगे जो घर में रहे। या कुछ ऐसा कि दिल्ली की लड़कियाँ तो कमाने लगती है तो उन्हें काम करने में शर्म आने लगती हैं। मेरा एक दोस्त आईआईटी से पढ़कर अब आईआईएम से एमबीए कर रहा है। वो एक हाऊस वाईफ चाहता है। मैंने पूछ दिया कि फिर क्या किसी कम पढ़ी लिखी लड़की से शादी करोगें। वो बोला नहीं । फिर क्यों वो नौकरी ना करें। अगर घर और बच्चों का सवाल है तो तुम भी तो नौकरी छोड़ सकते हो। इस बात पर सबके मुंह बन जाते है। सब चुप हो जाते है। ऐसा लगता है मानो मन ही मन सोच रहे हो भगवान इसके होने वाले पति को संबल दे। ये सोच है मेरे आस पास के पढ़े लिखे युवा की। जो नहीं चाहता है एक ऐसी लड़की जो काम करें। एक का मानना है कि नौकरी पेशा लड़की उंची आवाज़ में बात करती है। घर के काम करने से कतराती है। मेरा ये दोस्त बिस्कुट खाकर रोज़ सोता है। क्योंकि असमें आफिस से आने के बाद इतनी हिम्मत नहीं रहती है कि वो कुछ खाने के लिए बना सकें। ऐसे में उसे ये कहने में कुछ महसूस नहीं होता है कि पत्नी अगर नौकरी करें तो क्या घर के काम भी करें। शायद इनकी ये सोच है कि लड़कियाँ मशीनें है जो सब कुछ कर सकती हैं। मेरे मन में एक अजीब सी चिढ़ घर करती जा रही है। ऑफ़िस में लड़कियों से हंस हंस कर बात करने वाले । गर्लफ़्रेन्ड को स्टेटस सिम्बल समझने वाले ये लड़के आखिर क्या चाहते हैं। खुद 21वीं सदी में जीना और घर में रहने वाली को 10 वीं सदी में रखना चाहते हैं। मेरा एक दोस्त एक अखबार की संपादकीय में काम करता है। कुछ दिन पहले दिल्ली आया तो पुरानी बातें छीड़ी कि कॉलेज में क्या क्या हुआ। कॉलेज के वक़्त का उसका प्यार अब भी उसके मोबाईल में सेव है। वो आज भी उस लड़की की ख़बर रखता है और उसकी बाते करता है। लेकिन जब बात शादी की होती है तो अपने घर की मर्यादा बताने का अंदाज़ कुछ ऐसा कि मेरा सर चकरा जाता है। वो कहता है कि मेरी भाभी शादी के 8 साल बाद पहली बार दिन में छत पर गई थी। वो भी बबुआ के साथ उसे खेलना जो था। शहर में तो मैं रहूंगा वो तो माँ बाप की सेवा करेंगी। आखिर क्या चाहते है ये नई पीढ़ी के महानुभाव। ऐसे लोगों को मैं अपनी ऊंगलियों पर गिन सकती हूँ जो ये कहते है कि हम अपनी पत्नी का साथ देंगे या जो सच में ऐसा कर रहे हैं। आधुनिकता का चोंगा पहन कर ये आखिर क्या कर रहे हैं। कुछ समझ नहीं आता है। लड़कियाँ ऑफ़िस में कम काम करती हैं। काम चोरी करती हैं। बस में सीट के लिए झगड़ती हैं। ऊंची आवाज़ में बात करती हैं। ये वही लड़कियाँ हैं जो मासिक चक्र के दौरान भी भरी बस में चढ़कर ऑफ़ीस जाती हैं। वहाँ दिनभर काम करती है और घर आने पर पूरा काम करती हैं। ये वही लड़कियाँ है जो बस में चढ़े चंचल नौजवानों की फ़ब्तियाँ सुनती हैं। ऑफ़ीस में कई पढ़े लिखें साथियों की बेहूदा बातें सुनती हैं। घर में घरवालों की सुनती है और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी निभाती हैं। बावजूद इसके उन्हें चाहिए कि वो चुप रहे। रातों को जागकर पढ़े ज़रूर, लड़कों को पढ़ाई में पछाड़े ज़रूर लेकिन नौकरी ना करें। नौकरी करें अगर तो महीने का कोई भी दिन हो बस में सीट के लिए लड़ाई ना करें। ऑफ़ीस में भाग भागकर काम करें। घर पर भी काम करें। ये तो धर्म है हमारा। ये सब कुछ करें और चुप रहे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
यहाँ एक भी कमेंट नहीं ..लगता है आपने किसी की नब्ज़ पर उंगली रख दी है । खैर , जो लिखा तीखा पर सही लिखा। यह बिन्दास लेखन जारी रहे।
aajkal ke aadhunik ladkon kaa yah ek faishonable culturelism hai.mere aise hi ek enginere friend ka kahenaa hai ki "womens ko intellectual hona chaahiye wifes ko nahi". wife ki baat aate hi wo sari jimmedari apne parents par daal dete hain ki aap hi use chun lo aap hi use rakh lo, main ti bas apkaa obedient kamaau saput hoon.
Apki tarah sochane waalon ki yah duniya durgati kar dega kyonki use saari modernity culture ke khol me pack hi achchi lagti hai
b ahut hee santulit yathaarth likhaa hai. jay ho
औकात मे रखनेवालों की असली औकात दिखाई आपने....साधुवाद...अलख जगाए रखें.
यह तो आपसी समझदारी की बात है. दोनों में जो भी ज्यादा कमा सके और बाहरी दुनिया से ज्यादा सरोकार रख सके वह नौकरी कर सकता है और दूसरा घर और बच्चों की व्यवस्था देख सकता है.
यह पुरुषों के लिए कठिन है. क्यों? मैं अपने छोटे-छोटे बच्चों को खाना खिला सकता हूँ और साफ़ कर सकता हूँ लेकिन वे हमेशा मम्मी के साथ ही अच्छे से रहते हैं. यह कुदरती है, इसमें स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है, स्त्री घर और बच्चों को जितने अच्छे से देख सकती है उतने अच्छे से पुरुष नहीं देख सकते. मातृत्व का गुण किसी सभ्यता या संस्कृत ने मनुष्य पर थोपा नहीं है बल्कि विकास की प्रक्रिया ने प्रदान कियाहै.
वैसे हालत काफी बदल रहे हैं... और यहाँ तो टाइम भी बहुत लगता है कोई चेंज आने में.
यदि पत्नी की उच्च शिक्षा को घर में ही कैद रखना है तो बेहतर है कि साधारण शिक्षित लडकी से विवाह किया जाये. मेरे ब्लॉक में ही दो महिलाएं हैं जो यह कहती हैं कि उन्होंने अपने बच्चों की खातिर अपनी अच्छी नौकरी को छोड़ दिया. यह बात और है कि वे ऐसा गर्व से कहती हैं.
पढ-लिख जाने से और 21वीं सदी में रहने से आधुनिक नहीं हुआ जाता। आधुनिक तो तब होता है जब अपने अन्दर बसी हीन भावना और असुरक्षा बोध को निकाल सके। जिस दिन लड़कों में हीन भावना और असुरक्षा बोध समाप्त होगा तब ऐसी बातें स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। अभी वे भोगवाद से जकड़े हुए हैं और पत्नी की नौकरी करने से उन्हें अपने आनन्द छिनने का डर बना रहता है। आज आवश्यकता है इन्हें संस्कार देने की।
Post a Comment