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सड़क पर पड़ी लाश को देखकर कई बार मुंह फेरा है... लेकिन, कभी नहीं सोचा था कि, अपने जाननेवालों, अपने इलाक़े के लोगों, अपने गांववालों के मरने पर भी यूं मुंह मोड़ लूंगा।
मैं भुवन। दिल्ली में रहता हूँ। एक टीवी पत्रकार हूँ। मैट्रो में सफर करता हूँ। मेरी छत से चमचमाता अक्षरधाम नज़र आता है। मैट्रो के नए बन रहे स्टेशन का दिन रात चल रहा काम नज़र आता है। शनिवार को मेरा वीकली ऑफ़ रहता है। सुबह देर तक सोता रहा। उठा तो सोचा कि देखा जाए दुनिया में क्या हो रहा है। जो देखा, उसे देखकर लगा कि अब कभी शायद ही सो पाऊंगा। कहते है, आंखें बंद करने से सच्चाई नज़र नहीं आती। लेकिन, अब आंखें बंद करने में मुझे डर लग रहा है। आंखें बंद करने पर ख़ुद को अपने गांव के उस घर में पाता हूँ, जहाँ मेरा जन्म हुआ। घर की छत पर भूख-प्यास से बिलखते बच्चों और कुछ ना कर पाने की विवशता से रोते मां-बाप के बीच नाव का इंतज़ार कर रहा हूँ। चारों ओर अंधेरा और निगल जाने को आतुर पानी... बीच-बीच में हैलिकॉप्टर की आवाज़। बच्चों का रोना, अब सिसकियों में बदल रहा है...
मैं और मेरे जैसे न जाने कितने... राज्य से बाहर आकर अच्छी खासी नौकरी कर रहे हैं। आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर्स, डॉक्टर, एमबीए, पत्रकार और न जाने क्या-क्या... लेकिन, अब हम सिर्फ़ पर्व त्यौहारों या शादी ब्याह में ही घर जाने का प्रोग्राम बनाते हैं। अपनी जन्मस्थली, जहाँ हम पैदा हुए, पले बढ़े वहाँ आई इस भीषण आपदा में हमें घर जाने का मन नहीं होता। हम सिर्फ़ उसके बारे में बात करते हैं। छुट्टी नहीं मिलेगी... जा कर क्या करूंगा। इतनी भीषण बाढ़ में मैं अकेला क्या कर पाऊंगा... तमाम बहाने हैं हमारे पास मुंह मोड़ने के। कल समाचार चैनलों में बाढ़ की ख़बर देखने केबाद घर फ़ोन किया। दो हज़ार चार की बाढ़ में हमने कुछ राहत सामग्रियाँ बंटवाई थीं। इस बार भी दोस्तों ने कुछ किया हो यही सोचकर फ़ोन किया। पता चला पास के स्कूल में रिलीफ़ कैंप लगाया गया हैं। मैंने भी कुछ रुपए भेजकर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली। लेकिन, सच मानिए दिल कचो़ट रहा है। लगने लगा है कि हम परदेसी हो गए...
मैं भुवन। दिल्ली में रहता हूँ। एक टीवी पत्रकार हूँ। मैट्रो में सफर करता हूँ। मेरी छत से चमचमाता अक्षरधाम नज़र आता है। मैट्रो के नए बन रहे स्टेशन का दिन रात चल रहा काम नज़र आता है। शनिवार को मेरा वीकली ऑफ़ रहता है। सुबह देर तक सोता रहा। उठा तो सोचा कि देखा जाए दुनिया में क्या हो रहा है। जो देखा, उसे देखकर लगा कि अब कभी शायद ही सो पाऊंगा। कहते है, आंखें बंद करने से सच्चाई नज़र नहीं आती। लेकिन, अब आंखें बंद करने में मुझे डर लग रहा है। आंखें बंद करने पर ख़ुद को अपने गांव के उस घर में पाता हूँ, जहाँ मेरा जन्म हुआ। घर की छत पर भूख-प्यास से बिलखते बच्चों और कुछ ना कर पाने की विवशता से रोते मां-बाप के बीच नाव का इंतज़ार कर रहा हूँ। चारों ओर अंधेरा और निगल जाने को आतुर पानी... बीच-बीच में हैलिकॉप्टर की आवाज़। बच्चों का रोना, अब सिसकियों में बदल रहा है...
मैं और मेरे जैसे न जाने कितने... राज्य से बाहर आकर अच्छी खासी नौकरी कर रहे हैं। आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर्स, डॉक्टर, एमबीए, पत्रकार और न जाने क्या-क्या... लेकिन, अब हम सिर्फ़ पर्व त्यौहारों या शादी ब्याह में ही घर जाने का प्रोग्राम बनाते हैं। अपनी जन्मस्थली, जहाँ हम पैदा हुए, पले बढ़े वहाँ आई इस भीषण आपदा में हमें घर जाने का मन नहीं होता। हम सिर्फ़ उसके बारे में बात करते हैं। छुट्टी नहीं मिलेगी... जा कर क्या करूंगा। इतनी भीषण बाढ़ में मैं अकेला क्या कर पाऊंगा... तमाम बहाने हैं हमारे पास मुंह मोड़ने के। कल समाचार चैनलों में बाढ़ की ख़बर देखने केबाद घर फ़ोन किया। दो हज़ार चार की बाढ़ में हमने कुछ राहत सामग्रियाँ बंटवाई थीं। इस बार भी दोस्तों ने कुछ किया हो यही सोचकर फ़ोन किया। पता चला पास के स्कूल में रिलीफ़ कैंप लगाया गया हैं। मैंने भी कुछ रुपए भेजकर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली। लेकिन, सच मानिए दिल कचो़ट रहा है। लगने लगा है कि हम परदेसी हो गए...
4 comments:
yeah! its much better,
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भुवन, सच कहा आपने, बिहार की व्यथा ने सबको विचलित कर दिया है. अक्षरधाम तो मेरी भी छत्त से नजर आता है...मैं पांडव नगर मैं रहती हु...और तुम...
एक को राहत मिली। एक को मनोरंजन चाहिए। एक को पता चाहिए। तीनों सुख की तलाश में हैं। एक दिन जब स्मृति गोली देने की कला सीख लेगी तब दुनिया अपना गांव लगने लगेगी और कैटरीना, कोसी और कंपारी के गिलास की बाढ़ सब एक जैसी लगने लगेगी।
हे भगवान मैं कैसे खबीस बुड्ढे की तरह प्रवचन कर रहा हूं।
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