Tuesday, September 16, 2008

बॉम्बे टू गोवा : फ़िल्मी स्टाईल का सफ़र...

हमारी ज़िंदगी में कई सफ़र ऐसे होते हैं जो हमेशा याद रहते हैं। कोई घटना, बात या सहयात्री ऐसा असर छोड़ती हैं कि उसे भूल पाना नामुमक़िन हो जाता है। मेरी ऐसी ही स्मृतियों में विशेष स्थान है एक फ़िल्म का। वो फ़िल्म है - बॉम्बे टू गोवा। ये फ़िल्म पहली बार मैंने एक वीडियो कोच बस में देखी थी। वीडियो कोच बसों का भी एक वक़्त में अपना ही क्रेज़ था। पापा से ज़िद्द की जाती थी कि उसी में जाना है। फ़िल्म देखते-देखते मैं हंसते हुए लोटपोट हो गई थी। कल शाम रूम पहुंचकर यूँ ही चैनल सर्फ़िंग के दौरान ऊंगली ज़ी सिनेमा पर रुक गई। बॉम्बे टू गोवा आ रही थी। फ़िल्म बस ख़त्म ही होनेवाली थी। लेकिन, फिर भी मैं वही टिकी रही।

बॉम्बे टू गोवा एक शानदार कॉमेडी फ़िल्म है। मार्च 1972 में रिलीज़ हुई ये फ़िल्म 36 सालों बाद भी उतनी ही तरोताज़ा है जितनी कि तब होगी। फ़िल्म की सिचुएशन्स और पात्र संरचना कुछ ऐसी है कि उन्हें देखते ही हंसी छूट जाती है। ड्राइवर और कन्डक्टर का नाम राजेश और खन्ना होना। बस की अजीब सवारियाँ। महाराष्ट्रियन पति-पत्नि के बीच की किचकिच और प्यार, कोशी बाई का देवी रूप, पूरे सफ़र में सोते कैश्टो मुखर्जी का कैरेक्टर, अम्मा और अप्पा का लाड़ला बेटा जो पकौड़ा देखते ही पगला जाता है, पहलवान और चेले की जोड़ी या फिर पंडित और मौलवी साहब की जुगलबंदी। हर किरदार अपने आप में शानदार और नपा-तुला। फ़िल्म में एक चीज़ और जो आज अजीब लगती है वो है अमिताभ-अरूणा ईरानी की जोड़ी। एक बेहद अनकन्वेशनल जोड़ी। फ़िल्म देखकर लगता है कि अरूणा ईरानी उस वक़्त अदाकारी में मंझ चुकी थी और अमिताभ की झिझक कम नहीं हुई थी। एक बार महमूद साहब का एक इंटरव्यू देखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि कैसे अमिताभ फ़िल्म के हिट गाने देखा ना हाय रे.... की शूट के पहले घबराए हुए थे। फ़िल्म के छोटे-छोटे किरदारों में जान डाली शत्रुघ्न सिन्हा, मुकरी, असीत सेन, ललिता पवार, मनोरमा जैसे बड़े-बड़े कलाकारों ने। फ़िल्म के डॉयलॉग्स लिखे थे राजेन्द्र किशन ने जोकि पड़ोसन जैसी पेट दुखानेवाली कॉमेडी फ़िल्म के डॉयलॉग्स लिख चुके थे। फ़िल्म में किशोर कुमार का स्पेशल अपीयरेन्स भी मज़ेदार था। फ़िल्म में एक और पात्र था जो इंसान नहीं था, वो थी - एमपी टूरिस्ट की वो लाल बस, जिसमें पूरी फ़िल्म का ताना-बाना बुना गया था। वो फ़िल्म उस बस के बिना बिल्कुल अधूरी है।
पिछले ही साल एक फ़िल्म बनी थी जिसका भी नाम था बॉम्बे टू गोवा और वो भी एक बस में ही बुनी गई फ़िल्म थी। मैंने बहुत ही चांव से वो फ़िल्म देखी लेकिन, फ़िल्म शुरु होते ही मन खट्टा हो गया। फूहड़ अदाकारी और घटिया स्क्रीप्ट ने इस फ़िल्म को तो डूबाया ही साथ ही पुरानी बॉम्बे टू गोवा के नाम पर भी धब्बा लगा दिया। फ़िल्म देखकर बहुत चिढ़ हुई। लगा कि कोई एक ऐसा प्रोटोकॉल फ़िल्मी दुनिया में होना चाहिए जो ऐसी घटिया रिपलिकाओ से हमें और बेहतरीन फ़िल्मों को बचाए। क्योंकि ऐसा ही कुछ हाल पड़ोसन की रिमेक नई पड़ोसन का था। ऐसी फ़िल्मों से मेरा जो सबसे बड़ा डर है वो ये कि कही उन्हें देखने के बाद आज की जनरेशन वही धारणा पुरानी फ़िल्मों के बारे में भी ना बना ले...

4 comments:

Anonymous said...

im your favorite reader here!

Unknown said...

Feel good......

Udan Tashtari said...

रिमिक्स को लेकर चिन्ता जायज है..मैं तो गानों की रिमिक्स देखकर भी इसी तरह चिन्तित हो लेता हूँ..मगर क्या किया जाये..जो बिकता है, वो बेच रहे हैं सब!!

जितेन्द़ भगत said...

ऐसा वि‍वरण दि‍या कि‍ ये फि‍ल्‍म देखने की ती्व्र इच्‍छा हो गई। वैसे 5-7 बार मैं पहले भी देख चुका हूँ, पर आपने सच कहा- आज भी इसकी ताजगी बरकरार है।