Tuesday, September 16, 2008

पापा की गोद...

शाम के सात बज रहे थे। मैं ऑफ़िस से रूम लौट रही थी। खिड़की की ओर बैठी थी... ठंडी हवा चल रही थी, सो मुझे झपकी आ गई...
अचानक से रेड लाइट पर बस झटके से रुकी और मेरी झपकी टूटी...
उस एक पल को लगा कि मेरा सिर पापा की गोद में है। हम दादी के घर मंदसौर जा रहे है और शायद रतलाम या जावरा में बस रुकी है...
अगले ही पल मैंने ख़ुद को बस में अंजान लोगों के बीच पाया। वहाँ पापा नहीं थे... वो रतलाम भी नहीं था... मैं अकेली थी...
मैं हमेशा से ही बहुत आराम पसंद रही हूँ। ना जाने किस मुहुर्त में मैंने ये तय किया कि मुझे भी कुछ बनना है अपना वज़ूद तलाशना है, और मैं दिल्ली आ गई। ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई है। वैसे ये बात मैं इतनी बार बोल चुकी हूँ, कि अब पुरानी हो गई। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से मुझे ये लगने लगा है कि दिन छोटे हो गए है। 24 की जगह शायद 15 या 16 घंटे के ही रह गए है। अब ना मैं चैन से पढ़ पाती हूँ, ना कुछ लिख पाती हूँ, ना ही किसी से बात कर पाती हूँ। सब कुछ भागते-दौड़ते होता है। ऐसे में जिसका कम होना सबसे ज़्यादा अखर रहा है वो है – मेरी नींद। मुझे मेरी नींद हमेशा से ही बहुत प्यारी रही है। मैं इतना ज़्यादा सोती थी कि मम्मी मुझे कुम्भकर्ण की वंशज बुलाती थी। और मेरे पापा जो स्वभाव से बेहद हंसमुख और किस्से सुनाने में एक्सपर्ट है। मेरे सोने के किस्से बहुत शानदार तरीक़े से सुनाते थे। कई बार इस बारे में मैं उनसे लड़ भी चुकी हूँ। मैंने अपनी ज़िंदगी का अधिकतम सफ़र बसों मे तय किया है। वो नानी के घर देवास जाना हो या दादी के पास मंदसौर या बड़वानी जाना हो। पापा हमेशा बस से ही ले जाते थे। मैं और मेरा भैया कई बार झगड़े हैं, कि हमें ट्रेन से जाना है। लेकिन, पापा हमेशा एक ही बात कहते थे – मैं बड़वानी का हूँ, ट्रेन-वेन नहीं जानता। बस में ही सफ़र करूंगा। सो बस के सफ़र से मेरा नाता जन्मजात है। बस का सफ़र और मेरी नींद ये दोनों ही मुझे मेरे पापा के और क़रीब ले आते है। मुझे याद है कि कैसे भोपाल से बस में बैठते ही बैरागढ़ आते-आते ही मैं पापा की गोद में सो जाती थी... पापा हमेशा मुझे प्यार से सुला लेते थे...
बचपन में से लेकर बड़े होने तक बस का हर सफ़र मैंने पापा की गोद में सोते हुए गुज़ारा है। बचपन में बस में पापा की गोद थी तो बड़े होने पर कार में... लेकिन, कभी मैंने ये नहीं सोचा था कि पापा के बिना भी मुझे बसों में सफर करना पड़ेगा... कल का वो एक पल आज तक मन में उलझन पैदा कर रहा है...
आज सब कुछ क्यों इतना बदल गया... मैं अकेली दिल्ली में हूँ... मेरे पापा भोपाल में... आज ना दादी है... ना बाबा... अब हम बहुत कम मंदसौर जाते हैं... रतलाम का मीठा दूध और सेव खाए ज़माने बीत गए है... और अब मैंने पापा के बिना भी बसों भी सफ़र करना सीख लिया है... लेकिन, क्यों???
पता नहीं..
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8 comments:

Anonymous said...

dil chu lene wali post..... har kisi ki jindagi me aise pal aate hai. jindagi ki tez raftar me aage badhne k liye hame kai chezo ko pechche chodna padta hai...maa baap ka pyar aur sath bhi isi tez raftar jindagi me pechche chhut jata hai..halanki wo kabhi kam nahi hota..ya use bhulaya nahi ja sakta.
shubhkamnaye....
verma

रंजन (Ranjan) said...

जीवन्त चित्रण..

विष्णु बैरागी said...

मेरी कही बात को सच साबित होते देख अच्‍छा लग रहा है । तुम्‍हारे पास वह 'कण्‍टेण्‍टफुल मटेरियल' है जो दिल्‍ली में अपवादरूवस्‍प ही किसी के पास होगा । ईश्‍वर की कपा से अच्‍छा लिखती हो, लिखती रहना-निरन्‍तर । भले ही इसके लिए नींद से नाता तोडना पडे ।
लिखती रहो और छा जाओ - समूचे ब्‍लाग आकाश पर ।

Avinash Das said...

शानदार राइटिंग। विष्‍णु बैरागी जी की टिप्‍पणी को मेरी ही टिप्‍पणी समझें। मेरे उदगार भी कुछ इन्‍हीं शब्‍दों के आसपास होंगे। जमे रहो।

Unknown said...

ये बदहवासी जैसे जीने की शर्त बनती जा रही है। क्या किया जाए?

Udan Tashtari said...

बेहतरीन लेखन का नमूना-एकदम जीवंत. एक सांस पढ़ते गये और उदास हो गये.

Swapnil N. said...

दीप्ती.. कसम से... बचपन याद आ गया :)

Niharika said...

Too gud Dipti....its so touching...can feel ur feelings..and can relate too :)