दीप्ति।
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लहलहाती है बयानों की फसलें -
उफनती है संवेदना की नदियाँ -
कड़कती है आरोपों की प्रचंड बिजलियाँ -
और मुद्दों के गर्म तवे पर सिकती हैं -
छिछली राजनीति की रोटियाँ।
ब्लास्ट से ब्लास्ट के बीच
ब्लास्ट से ब्लास्ट के बीच
सबकुछ रहता है सामान्य, दिलकश और खुशनुमा -
दांवे होते हैं मुंह तोड़ जवाब के -
विफल होंगे नापाक इरादें -
और धराशाही होंगे ख़तरनाक मंसूबे -
ये संकल्प भी दोहराए जाते हैं।
ब्लास्ट से ब्लास्ट के बीच
ब्लास्ट से ब्लास्ट के बीच
खिलखिलाते है बच्चे, फुदकते हैं किशोर -
आँखों में पलते हैं सपने -
अनछुआ नहीं छूटता है कोई छोर -
घिरती है उम्मीदों की घटाएँ -
नाचते हैं निश्चय के मोर -
फिर पनपती है महत्तवकांक्षाएँ -
खिल जाते हैं पोर-पोर -
हर शहादत के बाद दोहराया जाता है, बस अब नहीं और।
ब्लास्ट से ब्लास्ट के बीच...
4 comments:
ये कविता अच्छी ही नही बल्कि सच्ची भी है.इनाम जीत पायेगी या नही ये तो नही बता सकता मगर जो इसे पढेगा उसका दिल ज़रुर जीत लेगी ये मेरा दावा है.
अनिलजी, परिणाम आ चुके हैं और सांत्वना भी मिल चुकी हैं।
दीप्ति
आपको बधाई!
puruskar mandand to nahi hota.
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