Tuesday, January 6, 2009

सब्र का इम्तिहान है ऑस्ट्रेलिया


पंकज रामेन्दू
इस बार बॉलीवुड का हफ्ता तो खाली रहा लेकिन हॉलीवुड के लिए ये हफ्ता अपशगुनी नहीं रहा, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो शगुन अपशगुन पर विश्वास नहीं करते, वो भी करते हैं, बस अंदाज़-ए-बयां अलग हो जाता है। खैर इस हफ्ते हॉलीवुड की एक फिल्म रिलीज़ हुई ऑस्ट्रेलिया। निकोल किडमेन और ह्यू जैकमैन जैसे सितारों से सजी इस फिल्म को बैज़ लुहरमैन ने डायरेक्ट किया, इससे पहले बैज़ मॉउलिन रॉग जैसा क्लासिक सिनेमा दे चुके हैं। लेकिन अगर लोग इसे माउलिन रॉग जैसा ही कुछ अपेक्षा बनाकर चल रहे हैं तो उनके हाथ में सिर्फ निराशा ही लगेगी। लेकिन इस फिल्म की रिलीज़ के साथ ही एक बात तो सिद्ध हो गई है कि हमारी देश पर से सिर्फ शासक बदले लेकिन हमारी गुलामी मानसिकता वैसी ही रही यही वजह है कि फिल्म की रिलीज़ के साथ ही इस फिल्म को कुछ अखबारों ने इस कदर तारीफ की चाशनी में लपेटा ऐसा लग रहा था हो ना हो ये फिल्म अगली ऑस्कर विनर फिल्म होगी। अंग्रेज़ी फिल्मों के साथ आपको ये बात हमेशा देखने को मिलेगी, हम दोस्तों में एक जुमला चलता है, अग्रंजी फिल्म है तो अच्छी ही होगी। ऐसा ही कुछ ऑस्ट्रेलिया फिल्म के साथ भी है, बेसिर पैर की स्क्रिप्ट पर लिखी गई एक मेलो़ड्रामेटिक फिल्म है।
फिल्म 1939 के दौऱ की ऑस्ट्रेलिया में निकोल किडमेन एक लेडी एशले के किरदार में जिसके पति की मौत के बाद अपने जानवरो के फार्म को बचाने की कोशिश करती है, साथ ही में एक समानांतर कहानी चलती है जो आदिवासी जातीयों के खिलाफ शासकीय नीतियों पर है, और फिल्म में एक हीरो के तौर पर नज़र आते हैं एक हैंडसम काउबॉय जिनका किरदार निभाया है ह्यू जैकमेन ने, जो दोनों कहानियों के साथ ही जुड़ा रहता है, वो जहां लेडी एशले के जानवरों को मार्केट तक लाने में मदद करता है, और इनके बीच बाधा बन कर आता है विलेन जो कि लेडी एशले के पति का मेनेजर रहता है और जानवर को चोरी करता है जिसकी वजह से लेडी एशले उसे अपने यहां से निकाल देती है।
फिल्म को जब आप देखते हैं तो कई बार लगता है कि फिल्म अब ख़त्म हो रही है, लेकिन हर बार फिल्म ख़त्म होते होते रह जाती है और इस प्रकार कुल तीन घंटे तक फिल्म के चलने का सिलसिला चलता है, जिसमें फिल्म ऑस्ट्रेलिया से निकलती है और तमाम चट्टानों से गुज़रती हुई एकदम से पर्ल हार्बर के युद्ध पर पहुंच जाती है, दर्शकों को फिल्म देखते देखते कई झटके लगेंगे, कुल मिलाकर कुछ ग्राफिक्स के सीन को छोड़ दिया जाए तो फिल्म कई कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। फिल्म कई बार आदिवासी जातियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को पकड़ने की कोशिश करती है लेकिन हर बार हाथ में आई मछली की तरह फिल्म की स्क्रिप्ट छूट जाती है। फिल्म को देखकर ये कहा जा सकता है कि ऐसा नहीं कि फिल्म की स्क्रिप्ट पर मेहनत नहीं की गई बल्कि यूं कहना चाहिए कि ज़्यादा अच्छा दिखाने के चक्कर में ज्यादा मेहनत हो गई और कुल मिलाकर अच्छा पकाने के लालच में खाना जलाने जैसी कोशिश है। इस फिल्म को अच्छे ग्राफिक्स और इफेक्ट के लिए 5 में से 2 स्टार दिये जा सकते हैं।

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