Friday, January 30, 2009

क्या आपने कभी घंटी बजाई है?

घर से मार-पीट की आवज़ें आ रही हैं। पड़ोसी को ये आवज़ें सुनाई देती है, वो उठता है और पड़ोसी के घर की घंटी बजा देता है। दरवाज़ा खुलता है और पड़ोसी कहता है - एक फोन करना था... अचानक उसकी जेब में रखा मोबाइल बज उठता है। वो फोन उठाता है और चला जाता है।



ये एक जनहित में जारी विज्ञापन है। जिसमें ये कहा जा रहा है कि अगर आपके आसपास घरेलू हिंसा हो रही है तो घंटी बजाइए। इस घंटी को बजाने का पहला मक़सद है उस हिंसा को रोकना और दूसरा साथ ही साथ अहम मक़सद है हिंसा करने वाले उस व्यक्ति को शर्मिंदा करना। शायद घरेलू हिंसा का इतिहास घर के बनने के साथ ही शुरु हुआ होगा। कई बार हमने आसपास के घरों से चिल्लाने की आवाज़ें सुनी हैं। हम सुनते है और फिर उसे अनसुना कर देते है। ये सोचकर कि घर का मामला है हम बीच में क्यों पड़े। फिर अगले दिन उन्हीं घरों से मर्दों को शान से और औरतों को मुंह के घाव पल्लू में छुपाते निकलते देखते हैं हम लोग। इस बार भी हम उन चोंटों को देखकर अनदेखा कर देते हैं। ये विज्ञापन हमें समझा रहा है कि कानों में रूई और आंखों पर पट्टी मत बांधिये, देखिए आसपास हो रही हिंसा को रोकिए उसे।
इस विज्ञापन को देखकर मेरे रोंगटें इस लिए खड़े होते हैं क्योंकि मेरी एक मौसेरी बहन इसी हिंसा का शिकार हुई है। उसे उसके ससुरालवालों ने जलाकर मार दिया। परिवार से आस छोड़ चुकी वो लड़की केवल अपने बेटे के दम पर ज़िंदा थी, जिसे आज उसकी सास लेकर फरार है। बहन का पति जेल में है और सास सौदा करना चाहती है कि मेरे बेटे को छोड़ो तब नाती मिलेगा....
विज्ञापन देखकर हर बार यही लगता है कि जिस वक़्त मेरी बहन पीट रही होगी काश कोई घंटी बजा देता...

5 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

आपके अनुभव को समझा जा सकता है. हमे जो बदलाव लेन हैं उसकी शुरुआत गाँव से करनी होगी. आप गौर करेंगी तो पता चलेगा की विज्ञापन में महानगरों को दिखाया जा रहा है . यह सच है की यहाँ भी यह सब हो रहा है लेकिन हमे यहाँ से दूर भी देखना होगा और वहां भी घंटी बजानी होगी

Poonam Misra said...

इस विज्ञापन में घंटी बजाने मात्र से यह संदेश उन दरिंदों को पहंचता है की हिंसा घर का मामला नहीं,समाज को वीभत्स ,अपवित्र करने वाला कुकर्म है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

असल में घंटी बजाने के लिए जिस सम्वेदना और सहकारिता भाव की ज़रूरत है वह हमारे पूरे समाज से ही ग़ायब हो गई है. काश! इस भाव को ज़िन्दा किया जा सकता.

नीरज गोस्वामी said...

आप की बहिन के बारे में पढ़ कर मन में बहुत पीड़ा हुई...इंसान क्यूँ इतना दरिंदा बन जाता है समझ नहीं आता...हम लोग आतंकवादियों के खिलाफ इतना शोर मचाते हैं लेकिन ये लोग जो हमारी बहनों बच्चियों को पीड़ा देते हैं आतंवादियों से कम हैं..क्या???जी नहीं इन्हें भी वो ही सजा मिलनी चाहिए...
बहुत समय बाद एक सरकारी विज्ञापन ऐसा आया है जो दिल को छूता है और अपनी बात बहुत सही ढंग से प्रस्तुत करता है...
नीरज

rashmi ravija said...

यह विज्ञापन तो मैने अभी तक नहीं देखा...पर दो साल पहले इस मुहिम के बारे में जरूर पढ़ा था...
इसे जीजान से साकार रूप देना चाहिए...और घंटी बजाने से हिचकिचाना नहीं चाहिए.
दो दिन पहले ही एक पोस्ट लिखी है...

प्लीज़ रिंग द बेल :एक अपील
http://rashmiravija.blogspot.com/2010/09/blog-post_29.html