
Wednesday, February 11, 2009
दोहरे मापदंड
बात कुछ ज़्यादा बड़ी नहीं है। लेकिन, फिर भी मुझे वो बड़ी लगी।
ऑफिस से जाने के बाद अगर कुछ सूकून देता है, तो वो है दोस्तों के साथ कुछ देर बैठना। दिनभर की बातें सुनाना। स्वभाव से बहुत बातूनी हूँ। जबतक घर पर रही मम्मी को दिनभर का विवरण उनके बिना मांगे ही दिया करती थी। कल भी दोस्तों साथ बैठकर कई बातें हुई। इसी बीच बातों-बातों में स्कूल की बातें शुरु हो गई। मैंने यूँ ही हंसते हुए कहा कि मेरे स्कूल में लड़कों को हाफ पेन्ट में आना पड़ता था। बेचारे लड़के बहुत शर्मिंदा होते थे, लड़कियों से नज़रें चुराते रहते थे। इतना कह कर मैं हंसने लगी। लेकिन, कोई मेरे साथ नहीं हंसा। मेरे सारे दोस्त एकदम चुप थे। इधर-उधर देख रहे थे। मुझे कुछ अजीब लगा और मैंने बात बदल दी। विदा लेते वक़्त मेरे एक दोस्त ने मुझसे कहा कि कुछ भी बोल देती हो तुम, थोड़ा ध्यान रखा करो। इसके बाद मैं रातभर यही सोचती रही कि मैंने ऐसा क्या कहा था। जो मैंने महसूस किया वही कह दिया। लेकिन, उस वक़्त मेरे हर दोस्त का चेहरा कुछ यूँ सपाट था कि मानो मैं उम्र में बहुत बड़े किसी संस्कृति के ठेकेदार से बात कर रही हूँ। जो लड़कियों के मुंह से इस तरह की बातें सुनना पसंद नहीं करते हैं। लेकिन, फिर मेरे मन में ये आया कि मेरे यही दोस्त कई बार मेरे सामने अपने ऑफिस में साथ काम कर रही लड़कियों के बारे में बातें करते हैं। कई बार ऐसी कि मेरी लड़ाई तक हो जाती है। कई बार बातों-बातों में गालियाँ दे देते हैं और जब मैं घूरती हूँ तो कुछ यूँ अंजान बन जाते हैं कि हमने कहाँ कुछ कहा... मेरा दिमाग कल शाम से घूम रहा है। खुद आधुनिकता की बातें करनेवाले, आधुनिक लोग अपनी सोच में कितने पिछड़े हो सकते हैं। ऑफिस में लड़कियों को ज़्यादा सुविधाएं मिलने से व्यथित मेरे ये साथी कई बार ये कह चुके हैं कि जब साथ काम कर रहे हो तो बराबरी से करो। लेकिन, यही साथी खुलकर बात करने से या किसी मज़ाक से यूँ बिदक जाएंगे मुझे नहीं पता था।

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5 comments:
अक्सर हममें इतनी मेधा नहीं होती कि निर्दोष मजाक और इंटेसिली किये जाने वाले मजाक के भेद को समझ सकें। लेकिन हमें यह कोशिश तो करनी ही चाहिये कि जो बात हमें नहीं अच्छी लगी उस पर खामोश रहें या तब तक न बोलें जब तक कि हमारा सक्रिय हस्तक्षेप कुछ सकारात्मक न रचता हो।
aakhiri pankatyaan dikh nahi paaye shayad server me kuch prob. hai khair aapka sval vazib hai
बात तो आपने कायदे की लिखी है और कायदे में ही फायदा है
दीप्ति,दिक्कत ये है कि ऑफिस के लड़के जिस आधुनिकता के दम पर कलेजे पर कील ठोकते हैं, उनके आगे आप उत्तर-आधुनिक बन जाती हैं, अब कहां पचा पाएंगे आपको वो।
दीप्ती यही अन्तर दीखता है समाज में. दरअसल वे आपको उत्तर आधुनिक होते देखकर पसोपेश में हैं...
शायद यही उनकी मानसिकता है और क्या कहा जा सकता है...
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