Saturday, May 2, 2009

झोला उठाकर चले... 2

आपके पास कितनी भी डिग्रियाँ क्यों न हो ये कभी भी नौकरी की गारंटी नहीं होती हैं। कॉलेज में साथ पढ़नेवाले कई टॉपर आपको कही छो़टी-सी नौकरी करते मिल जाते हैं और कई दब्बू कही टॉप पोज़िशन पर काम करते मिल जाएगे। ऐसे में किसी बड़े शहर में धक्के खाते हुए कोई नौकरी खोजना तपस्या के बराबर है। एक ऐसी तपस्या जिसमें अग्नि नहीं बल्कि गालियों और बुरे व्यवहार के बीच से होकर गुज़रना पड़ता हैं। ऐसा ही होता उनके साथ जो अपने छोटे-छोटे शहरों से झोला उठाकर यहाँ चले आते हैं। यहाँ आने के बाद ऐसी कई परिस्थितियों से हमें दो-चार होना पड़ता हैं जिनके बारे में हम सपने में भी नहीं सोचते थे। ऐसा ही एक धक्का होता है दोस्त के मुंह से ये सुनना कि अपना बंदोबस्त अलग कर लो। ऐसे वक़्त में अगर ये तय किया जाए कि जीना या यहाँ मरना यहाँ। तो सबसे पहले मुलाक़ात मृत्यु से ही होती हैं। क़िस्मत ने साथ दिया तो कोई न कोई तिनका तो मिल ही जाता है। ऐसी कोई नौकरी जो इतना सहारा दे सकें कि उस महानगर में टिका जा सकें। नौकरी मिलते ही हमें लगता है कि हमने जीवन का एक बहुत पड़ाव पारकर लिया। लेकिन, जैसे ही उस नई दुनिया में प्रवेश होता है पता लग जाता है कि मंज़िल तो अभी दिखाई तक नहीं दे रही है।
मेरी इस पोस्ट के साथ ही फिलहाल महानगर में आनेवाले युवाओं के इस सफ़र पर एक अल्पविराम। मेरे और मेरे आसपास मेरे ही जैसों के जावन की गाड़ी यही तक पहुंची है। सो जैसे वो आगे बढ़ेगी ये किस्त भी आगे खिसकेगी....

4 comments:

अनिल कान्त said...

इस से भी बुरे हालत होते हैं ..इससे भी बुरे हालत देखें हैं लोगों ने ...दोस्तों को बदलते देखा ...बेवकूफों को नौकरी करते देखा ...बहुत कुछ करते देखा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

अनिल कान्त said...

इस से भी बुरे हालात होते हैं ..इससे भी बुरे हालात देखें हैं लोगों ने ...दोस्तों को बदलते देखा ...बेवकूफों को नौकरी करते देखा ...बहुत कुछ करते देखा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

अनिल कान्त said...

इस से भी बुरे हालात होते हैं ..इससे भी बुरे हालात देखें हैं लोगों ने ...दोस्तों को बदलते देखा ...बेवकूफों को नौकरी करते देखा ...बहुत कुछ करते देखा है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

L.Goswami said...

आपके शब्दों में छिपी व्यथा साफ दिखाई दे रही है.