Sunday, May 31, 2009

काश ऐसा होता !

पंकज को आप पहले भी लूज़ शंटिंग पर पढ़ चुके हैं। ये अफ़लातूनी इंसान एक संघर्षरत स्क्रीप्ट राइटर हैं। फ़िल्मों के आदी और उसमें ही रचे बसे पंकज फ़िल्म समीक्षा करते हैं। फ़िलहाल जो आपके सामने प्रस्तुत हैं वो पकंज की लिखी दो कविताएं हैं।
-दीप्ति

काश ऐसा होता !
-पंकज रामेन्दू

काश ऐसा होता
कि जिंदगी की उलझनें,
महबूबा की जुल्फों की तरह होती,
जिनमें जब प्रेमी अपने
बेबस, झिझकते हुए हाथों को डालता है
तो वो खुद-ब-खुद
सुलझने को राज़ी हो जाती हैं,
औऱ ये उलझन
एक अजीब सा आंनंद देती है
एक ऐसी उलझन,
जिसे बार-बार सुलझाने का मन करता

काश ऐसा होता !
कि जिंदगी की उलझनें,
पंतग के मांजे की तरह होतीं,
जिसके दोनों सिरों को पकड़
नादान बच्चा भी उन्हें सुलझा लेता है,
और वो उलझने,
उस मासूम बच्चे के इशारों पर ,
ऐसे खुल जाती हैं
जैसे हवा के झोंके से,
खिड़की का पल्ला खुल जाता है।

काश ऐसा होता !
कि वक्त रूठता तो इस तरह
जैसे कोई बच्चा अपनी मां से रूठ जाता है,
जिसके रूठ कर बात ना करने में भी,
एक अनोखा सा आनंद आता है,
जिसे मनाने की जद्दोज़हद
हमें भाव-विभोर कर देती है
जिसका रुठना हमें मनोरंजित करता,
काश ऐसा होता !




एक सवाल
-पंकज रामेन्दू

हर बार सोचता हूं कि
जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,
तो बारह आने खर्च कर डालूंगा
औऱ चाराने बचा लूंगा,
कभी ज़रूरत पड़े,तो
इन चारानों से बारानों का मज़ा ले सकूं,
लेकिन जब भी वक्त की मुट्ठी खुलती है
तो हथेली पर चाराने ही नज़र आते हैं
पूरी जिंदगी चाराने को बाराने बनाने में
होम हो जाती है,
कई बार लगता है कि जब ये रुपया हो जायेगी
तो क्या जिंदगी, जिंदगी रह जाएगी ?

5 comments:

अजय कुमार झा said...

waah pankaj kee dono hee kavitaayein bataatee hain ki unkaa andaaj aur shailee dilchasp hai...

Udan Tashtari said...

दोनों ही बहुत गहरी रचनायें..पंकज जी को बधई..

हर बार सोचता हूं कि
जिंदगी जब एक रूपया हो जायेगी,
तो बारह आने खर्च कर डालूंगा
औऱ चाराने बचा लूंगा,
कभी ज़रूरत पड़े,तो

-वाह!!

Anonymous said...

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amit kumar said...

आप ख़ुशनसीब हैं कि वक़्त की मुट्ठी खुलती है तो कम से कम चार आने नज़र आते हैं। कई ऐसे हैं जिन्हें एक आना भी नज़र नहीं आता। पता नहीं जब ज़िंदगी रुपया होगी तो क्या होगा, पर ये तय है कि तब चार आने वाले दिन बहुत याद आएंगे। हालांकि मैं हिसाब-किताब में ज्यादा विश्वास नहीं रखता।

Rajat Narula said...

काश ऐसा होता !
कि जिंदगी की उलझनें,
पंतग के मांजे की तरह होतीं,
जिसके दोनों सिरों को पकड़
नादान बच्चा भी उन्हें सुलझा लेता है,
और वो उलझने,
उस मासूम बच्चे के इशारों पर ,
ऐसे खुल जाती हैं
जैसे हवा के झोंके से,
खिड़की का पल्ला खुल जाता है।

bahut sunder rachna hai...