Sunday, June 7, 2009

भोपाल में- मैं...

हाथ में बीस दिन का प्लास्टर चढ़ गया था, सो मैं मेडिकल लीव लेकर फ़िलहाल भोपाल में हूँ. हाथ के बहाने ही सही लेकिन कुछ आराम ज़रूर मिल गया है. सच कहूँ तो मेरा ये शहर मुझे हमेशा से ही बहुत प्यारा लगा है लेकिन अब जब से दिल्ली में रह रही हूँ ये और भी प्यारा लगने लगा है. यहाँ हर काम को न सिर्फ करने बल्कि आराम से करने का समय है. यहाँ आप एक इंसान की तरह जी सकते है जो सच में जीवन को जीने के लिए पैदा हुआ है. दिल्ली में तो लगता है की सांसे भी हम किसी और के लिए ले रहे है. हर शाम को ऑफिस से वापस रूम जाकर जब बिस्तर पर गिरती हूँ तो लगता है की पता नहीं किस बोझ के तले दबी हुई थी दिन भर. खैर फिलहाल घर पर हूँ और माँ पापा और भैया के साथ समय बिता रही हूँ. हाथ काम करने लायक नहीं है सो सारा काम करने के लिए घरवालो का एक हेल्पिंग हैण्ड तैयार रहता है. आज पापा से यूँ ही बात बात में पता चला की मेरे ब्लॉग की कुछ पोस्ट उनके ऑफिस में काम कर रहे कुछ लोगों को बहुत पसंद आई. लेकिन इन सब के बीच किसी ने ये भी कहा की दुबेजी ने लिखी होगी दीप्ती के नाम से छाप दी होगी. पापा ने जब ये बात बताई मुझे बहुत अच्छा लगा क्योकि मैं हमेशा से ही लेखन में पापा को अपना आदर्श मानती हूँ और ऐसे जब मेरे लिखे को कोई पापा का लिखा मने तो मुझे ये बात पसंद आई.
खैर आज पता चल रहा है की शारीर का एक अंग भी काम न करे तो कितनी मुसीबत होती हैं ये चंद लाइन एक हाथ से लिखने में ही मेरा उल्टा हाथ उल्टा हो गया है, लेकिन क्या karun लिखने का मोह हाथ के निक्कमे होने पर भी जा ही नहीं रहा है...

1 comment:

राजन अग्रवाल said...

मुश्किल होता है जब किसी अंग के न होने का अहसास हो. तभी पता चलती है अहमियत प्रकृति की, जिसने हमें ये शारीर दिया है, और जिसका इस्तेमाल हम बेकार के कामो में करते हैं, भगवान् न करे कि किसी को ऐसी तकलीफ हो, आप जल्द ठीक हों, शुभ कामनाएं..