Tuesday, June 9, 2009

भोपाल से मेरी पाती : सुकून को खोजते हुए...

हर तरह की आवाज़ आप यहाँ सुन सकते है. कोयल तो दी भर कूकती रहती है. एक पल को भी चुप नहीं होती है. मम्मी कहती है की ज़रा सा तुम कूक कर देखो की कैसे वो चिढ जाती है. मैंने तो करके भी देखा. बड़ा मज़ा आता है कोयल को चिढाने में. मेरा घर वैसे है तो सरकारी लेकिन फिर भी इतने सालों से रहते हुए अपना लगने लगा है. जब भी लगता है की अब कुछ सालो में इस छोड़ना है मन दुखी हो जाता है. खुला खुला सा एक दम शांत. घर में इतनी खिड़कियाँ है की सीधे ठंडी हवा लगती है. किचेन की खिड़कियों से तो लगता है की किसी जंगल में ही खड़े है. मेरी मम्मी कोई पक्षियों की जानकार नहीं फिर भी वो जानती है की कब कौन से पक्षी यहाँ आयेगे. गिलहरी हो या छोटे छोटे जीव या फिर बिल्ली हर किसी ने हमारे इस घर में एक घर बसा रखा है. यहाँ रह कर ये महसूस ही नहीं होता है की हमारा पर्यावरण किसी खतरे में है. सच हम पता नहीं किस अंधी दौड़ में शामिल है जो अपने आस पास ही मौजूद इस सुन्दरता को छोड़ कर सीमेंट के जंगलों में बस जाते है.

1 comment:

Anonymous said...

आज मैं यहाँ बॅंगलुर मे बैठ कर आपके ब्लॉग को पड़ रहा हूँ आपने यहाँ इतनी दूर मुझे भोपाल की याद दिला दी सचमुच उस जगह के जैसी कोई और जगह नही है इस जहाँ मे वो न्यू मार्केट की चाय हो या टॉप आंड त्वन् की आइस क्रीम या कड़ाही से निकलते समोसे इन सबका मज़ा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ भोपाल मे ही मिल सकता है वो बड़ी झील का किनारा हो या भारत भवन का वो सुंदर नज़ारा ऐसा कही देखने को नही मिलेगा. सचमुच आपका धन्यबाद की आपने मुझे फिर से भोपाल की याद दिला दी वो मेरे संघर्ष के दिनो की याद वो दोस्तो के साथ घूमने फिरने या मज़ा करने लड़ने झगड़ने की याद. कुछ खट्टी कुछ मीठी याद.शुक्रिया