Monday, January 25, 2010
मैं और मेरा ख़राब स्वभाव...
अभी-अभी कस्बा पर रवीश कुमार का लिखा लेख पढ़ा है। लेख रिपोर्टर्स की भावुकता को लेकर है, कि कैसे एक रिपोर्टर रिपोर्ट को कवर करते हुए रिश्ते बना लेता हैं। कैसे ये वादा कर आता है कि फिर मिलने आउंगा और दोबारा नहीं जा पाता है। पूरा लेख पढ़ने पर मुझे रूलाई-सी आ गई। मैं ख़ुद एक रिपोर्टर हूँ और इस तरह के रिश्तों के बीच में रहती हूँ। पिछले ही हफ़्ते मैं एक शूट पर गई थी। सर्दी से हालत खराब थी और आँख में हैमब्रेज हो गया था ऐसे में भी शूट करना ज़रूरी था। ये म्यूज़ियम पंडित चतुरलाल के बेटे ने अपने पिता की याद में बनवाया है। पंडित चतुरलाल बेहतरीन तबलावादक थे। मैं जब वहाँ पहुंची तो मेरी ऐसी हालत देखकर चतुरलालजी के बेटे ने मुझसे कहा कि आप थोड़ा बैठ जाइए मैं आपके लिए दवा लाता हूँ। मैंने दवा खाई कॉफ़ी पी और फिर शूट शुरु हुआ। ऐसे ही है स्टैम्प घर वेब साइट और स्टैम्प कलेक्ट करनेवाले सबरवालजी जोकि फोन करते ही पहला सवाल सेहत से जुड़ा हुआ पहुंचते हैं। उनके घर जब शूट पर गई थी तब भी हालत खराब थी। ये मेरी विडम्बना है कि ज़्यादातर मेरी तबीयत खराब ही रहती है। खैर, रवीश कुमार की पोस्ट पढ़कर किसी भी रिपोर्टर को अपनी रिपोर्ट्स को कवर करते वक़्त हुई परेशानियाँ और उससे जुड़ी कहानियाँ याद आ जाएं। लेकिन, अपने इस लेख में ज़िक्र किसी भी ऐसे इंसान का नहीं बल्कि स्वीकारोक्ति अपनी एक ग्लानि की। दरअसल मैं अपने फ़ोन रीसीव करने में एकदम आलसी हूँ। फ़ोन किसी पहचानवाले का हो या फिर किसी अंजान नंबर से। मैं बहुत कम ही फ़ोन उठाती हूँ। दिनभर ऑफ़िस में भागते-दौड़ते तो मोबाइल बंद ही रहता हैं और जब इससे बाहर निकलती हूँ तो लगता है कि अब बस मैं अकेली ही रहूँ। किसी से न तो बात करने का मन होता है और न मिलने का। मेरा ये अकेला रहने का स्वभाव मुझे मेरे कई दोस्तों से दूर कर चुका हैं। इसी स्वभाव के चलते मैं कभी रिपोर्टर नहीं बनना चाहती थी। लेकिन, जो किस्मत में था वो तो होना ही था। अब कई बार कई लोग जहाँ मैंने शूट किया हैं फोन करते हैं। आधे वक़्त में फोन उठाती नहीं हूँ और आधे वक़्त मैं व्यस्त होने का बहाना बना देती हूँ। ये ग़लत हैं। मुझे मालूम है फिर भी मैं ऐसा करती हूँ। खैर, उस लेख को पढ़ने के बाद मैंने अभी अब्दुलजी को फोन किया। उन पर मैंने डॉक्यूमेन्ट्री बनाई थी। पिछले कुछ दिनों से वो फोन कर रहे थे और मैं उठा नहीं रही थी। आज मैंने उनसे बड़ी देर बात की है...
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काम काज के चलते...
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3 comments:
पंडितजी के बारे में कभी मौका लगे तो और लिखिए. और जहाँ तक फ़ोन कि बात है तो एक कॉमेडी फिल्म देखना कभी - yes man (२००८).
मैडम ऐसा नहीं है। न तो आपका स्वभाव ख़राब है और न ही रिश्ते फोन करने या रिसीव करने से बनते-पनपते हैं। न ही इस स्वभाव की बदौलत आप अपने दोस्तों से दूर हैं। ये तो स्वाभाविक ही है कि टीवी में दस-ग्यारह घंटे की नौकरी में सर खपाने....सर ही नहीं हाथ, पांव, आंख,कान और जाने क्या-क्या खपाने के बाद जो थोड़ा वक्त बचता है, हर कोई अपने लिए इसे इस्तेमाल करना चाहता है। मुझे भी घर पहुंचने के बाद सिर्फ़ सोने की इच्छा होती है। दिनभर के हेक्टिक सेड्यूल के बाद थोड़ा बचाखुचा टाइम अपने लिए रखना चाहती हैं तो इसमें ग़लत क्या है ? मुझे लगता है कि क्वांटिटी टाइम की बजाय क्वालिटी टाइम मैटर करता है यानि हमने किसी के साथ कितना वक्त गुज़ारा, इससे कहीं ज्यादा अहम है कि साथ रहते हुए हमारा वक्त कैसा गुजरा। रिश्ते भी इसी बात पर निर्भर करते हैं। तभी तो कई बार एक छोटी-सी मुलाकात ज़िंदगी भर के लिए यादगार बन जाती है, कई बार तो इन छोटी मुलाकातों में अच्छे दोस्त भी मिल जाते हैं। जबकि, कई लोग जिनके आसपास हम जिंदगी का काफ़ी वक्त गुजार देते हैं, बस जान-पहचान तक सीमित रहते हैं। असल में हम उन्हें जान भी नहीं पाते, सिर्फ़ पहचान होती है। कई बार तो पहचान भी नहीं पाती, असली पहचान तब होती है, जब कोई कांड हो चुका होता है।
ब्लॉग जगत का घिनौना चेहरा अविनाश
भारतीय ब्लॉगिंग दुनिया के समस्त ब्लॉगरों से एक स्वतंत्र पत्रकार एवं नियमित ब्लॉग पाठक का विनम्र अपील-
संचार की नई विधा ब्लॉग अपनी बात कहने का सबसे प्रभावी माध्यम बन सकता है, परन्तु कुछ कुंठित ब्लॉगरों के कारण आज ब्लॉग व्यक्तिगत कुंठा निकालने का माध्यम बन कर रह गया है | अविनाश (मोहल्ला) एवं यशवंत (भड़ास 4 मीडिया) जैसे कुंठित
ब्लॉगर महज सस्ती लोकप्रियता हेतु इसका प्रयोग कर रहे हैं |बिना तथ्य खोजे अपने ब्लॉग या वेबसाइट पर खबरों को छापना उतना ही बड़ा अपराध है जितना कि बिना गवाही के सजा सुनाना | भाई अविनाश को मैं वर्षों से जानता हूँ - प्रभात खबर के जमाने से | उनकी अब तो आदत बन चुकी है गलत और अधुरी खबरों को अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना | और, हो भी क्यूं न, भाई का ब्लॉग जाना भी इसीलिए जाता है|
कल कुछ ब्लॉगर मित्रों से बात चल रही थी कि अविनाश आलोचना सुनने की ताकत नहीं है, तभी तो अपनी व्यकतिगत कुंठा से प्रभावित खबरों पर आने वाली 'कटु प्रतिक्रिया' को मौडेरेट कर देता है | अविनाश जैसे लोग जिस तरह से ब्लॉग विधा का इस्तेमाल कर रहे हैं, निश्चय ही वह दिन दूर नहीं जब ब्लॉग पर भी 'कंटेंट कोड' लगाने की आवश्यकता पड़े | अतः तमाम वेब पत्रकारों से अपील है कि इस तरह की कुंठित मानसिकता वाले ब्लॉगरों तथा मोडरेटरों का बहिष्कार करें, तभी जाकर आम पाठकों का ब्लॉग या वेबसाइट आधारित खबरों पर विश्वास होगा |
मित्रों एक पुरानी कहावत से हम सभी तो अवगत हैं ही –
'एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है', उसी तरह अविनाश जैसे लोग इस पूरी विधा को गंदा कर रहे हैं |
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