Tuesday, April 13, 2010

उम्मीद की गठरी

पंकज रामेन्दू
उम्मीद की गठरी को जब से उठाया,
तब से मैंने ये पाया कि मैं कायर हो गया
गठरी को सिर पर उठाये मैं
जिंदगी की पटरी पर फिसलता हूं संभलता हूं
लेकिन बोझ से झुकी हुई मेरी पीठ
अक्सर मेरा मुंह धरती की ओर मोड़ देती है
मैं आसमानी रंग नहीं देख पाता हूं

इस गठरी में सबकी अपनी-अपनी पोटली है..
जिसके बीच मेरे ख्वाबों की पोटली ऐसी है
जैसे रेहड़ी पर बिकते हुए सस्ते कपड़े
जिनमें अपने पसंद का कपड़ा निकालने में कई बार उम्र गुज़र जाती है.
लेकिन फिर भी मैं लगा हुआ हूं,
डरते हुए, सहमते हुए,

शायद मुझे वो कपड़ा मिलेगाजो मेरे पसंद को होगा
मरे नाप का होगा

1 comment:

Anonymous said...

kuch bhi likh do wo kabita ho jata hai