Saturday, June 23, 2012

महानगर की आजीवन मैराथन में दौड़ते हुए....

कई बार मुझे पापा थके हुए से लगते थे। कई बार ऐसा लगता था कि अरे इन अंकल के पास तो इतना पैसा है, इन्होंने तो घर बना लिया या इनकी बेटी तो वो मंहगेवाले स्कूल में पढ़ाई कर रही है। हम हमेशा पापा पर गुस्सा जताते कि वो बहुत थके हुए है और जीवन में आगे नहीं बढ़ना चाहते है। लेकिन, पापा पर न तब इस बात का असर हुआ और ना आज होता है। वो आज भी वैसे ही है- परिस्थिति में खुश और संतुष्ट। भोपाल में आज भी हमारा कोई घर नहीं। सरकारी क्वार्टर को छोड़कर अब एक किराए के मकान में हम रह रहे है। सरकारी जीप जब तक थी तब तक रही अब मिनी बस से पापा न्यू मार्केट जाते है। पूंजी न जोड़ पाने का उन्हें कोई मलाल नहीं। वो आज भी आराम से रह रहे है। लिखते है, पढ़ते है, चाय बनाते है, वैरायटी बुक हाउस जाते है, क्रिकेट और सास-बहू के सीरियल सब कुछ मजे से देखते है। इस बीच मम्मी की परेशानियां, उनकी उलझनें और उनकी डांट सब कुछ सुनते भी है। मैंने एक बार पापा से पूछा था कि वो क्यों पैसा नहीं जोड़ते, बाक़ी के दोस्तों की तरह बड़े शहरों में ज्यादा काम नहीं करते या फिर इसी शहर में लोगों के बीच जाकर पैसे और नाम कमाने के नई तरीके नहीं खोजते। जवाब में उन्होंने बस इतना कहा कि वो महानगर की ज़िंदगी आदमी की उम्र को आधा कर देती है। और, लोगों के बीच बैठकर जुगाड़ करने से ज़्यादा मुझे तुम लोगों के साथ टीवी देखना पसंद है फिर कोई अगर ये ना जान पाए कि मैं कितना और कैसा लिखता हूँ इसकी मुझे परवाह नहीं। और, सबसे बड़ी बात मैं जैसे जीना चाहता हूँ, वैसे ही जी रहा हूँ। मुझे लगा कि पापा डरते है। लेकिन, आज दिल्ली में सात साल रह लेने के बाद मैं जान चुकी हूँ कि वो डरते नहीं है, वो तो बस जीना चाहते है। आज जब ऑफिस पहुंचने में एक घण्टा खप जाता है, दिन का कोई खाना ही नहीं होता है और रात का खाना बाहर बजे होता है। तब मुझे मेरे पापा की वो आराम और इत्मिनान की मुस्कान याद आती है जो मेरे चेहरे से गायब है। ऐसा लगता है कि खुद को साबित करने, दिल्ली में घर बनाने और पैसा कमाने के चक्कर में मैं दौड़ रही हूँ, लगातार दौड़ रही हूँ और ज़िंदगी के अंत तक बस दौड़ती ही रहूंगी। अब तो पापा का घर ना बनाने का फैसला भी मुझे सही लगता है। बन जाता तो उस घर में रहता कौन? छोटे शहरों से निकला हर युवा आज दिल्ली या मुंबई में रह रहा है ऐसे में माता-पिता की मेहनत की कमाई से बने घरों में अब वही माता-पिता अकेले घूम रहे है। परिवार के बढ़ने की उम्मीद के साथ बने दो मंज़िला घरों की एक मंज़िल या तो बंद पड़ी है या किराए पर चढ़ी। बच्चे तीज-त्यौहार में दस दिन वहाँ रहते है, पुराने दिनों को याद करते है, दुखी होते है और फिर महानगर की आजीवन मैराथन का हिस्सा बन जाते है। हम सब एक अदृश्य कैल्कुलेटर के साथ ऐसे शहरों में जी रहे है। पैसे और समय के साथ भावनाओं और संवेदनाओं को भी कैल्कुलेट करके खर्च कर रहे है। ऐसे में बिना किसी पूंजी, बिना किसी उम्मीद के, अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जीने का पापा का फैसला बार-बार मेरे दिमाग में घूमने लगता है। ऐसा लगता है कि मानो पापा मुस्कान के साथ मुझसे कह रहे हो बेटा ज़िंदगी तो केवल मैं ही जी रहा हूँ, आप तो बस दौड़ लगाओ...

1 comment:

विनीत कुमार said...

दीप्ति,मैं आपके पापा की तरह की जिंदगी जीना चाहता हूं,जिउंगा भी,देख लीजिएगा..