Tuesday, June 5, 2012

समझदार समाज...

सत्यमेव जयते देख रही है? सबको देखना चाहिए इसे तो खासकर माता-पिता को... मैं उस वक़्त पोछा लगा रही थी। वो जीजी का फोन था और वो इस एपिसोड को देखकर बहुत खुश हो रही थी। उसकी आवाज़ की खनक एकदम साफ सुनाई दे रही थी। वो बोलने लगी फोन तो पहले बुआ-फुफाजी को ही करनेवाली थी लेकिन, फिर तुझे ही कर दिया। देखा कितना सही दिखा रहे है। अरे, हमने कोई गलत काम थोड़े ही किया है। मैंने जीजी को खूब मार खाते देखा है। पढ़ाई बहुत तेज़, पूरे खानदान की आँखों का तारा और एक मिलनसार लड़की। जीजी आज भी एक आदर्श के रूप में मेरे मन में है। हालांकि प्यार में पड़कर मार खाते देख न मुझे कभी प्यार करने का मन हुआ था और न ही ये कि प्यार तो खतरनाक है इसे नहीं करना चाहिए। जीजी ने उन्हीं से शादी की जिससे वो करना चाहती थी और आज वो बहुत खुश है। जीजी की आवाज़ की खनक मेरी आवाज़ में नहीं थी। उसकी वजह थी मेरा आशावादी न होना। इस कार्यक्रम को हरेक को देखना चाहिए खासकर माँ-बाप को लेकिन, मैं जानती हूँ कि जो इसके विरोधी है वो कब का चैनल बदल चुके होगे। इतना ही नहीं वो तो आमिर खान को मनभर कर कोस भी चुके होगे। एक कार्यक्रम तो छोड़िए ऐसे हज़ारों कार्यक्रम और शादियाँ और अपने ही घर में लोगों की स्वीकारोक्ति कुछ भी ऐसी मानसिकता को नहीं बदल सकती है।
  इस सब के बीच में एक और खबर आई कि मेरे दोस्त के घरवाले ढ़ाई तीन साल के मान मुनव्वल के बाद उसकी पसंद से मिलने और एक मौका देने के लिए तैयार हो गए। इस मान जाने के पीछे की वजह बच्चे की खुशी कतई नहीं है। इसके पीछे उसकी बढ़ती उम्र और समाज के सवाल है। क्या बात है शादी नहीं हुई आपके बच्चे की? अब तो उम्र हो चली है। अरे कोई पसंद है तो उसी से कर दीजिए आजकल तो सब चलता है। और, ऐसे ही न जाने कितने और जुमले हवा में तैरते मिल जाएगे।
 दरअसल अब शादी का होना सामाजिक प्रतिष्ठा से बढ़कर अहम की लड़ाई तक पहुंच गया है। अब बच्चों और माँ-बाप में एक होड़ सी लग गई है कि कौन किसे झुकाता है। बच्चा अगर झुक गया तो माँ-बाप सीना चौड़ा करके कहते है- अरे, हमारा बच्चा था कैसे कोई ग़लत काम करता। हमने मना किया तो एक बार में मान गया। आखिर हमारे संस्कार थे उसमें। बच्चा अगर ना माना तो- अरे, अब तो बच्चों का ही ज़माना है। बच्चे बहुत समझदार हो गए है भला बुरा समझते है। फिर हमारा क्या है हमने तो अपनी ज़िंदगी जी ली।
  ये दोहरा बर्ताव केवल माता-पिता तक ही सीमित नहीं है। युवा भी इसी का शिकार है। प्यार तो एक ना एक बार सबको हो ही जाता है। कुछ उसे अपनाने से पहले ही भूलने की तैयारी कर लेते है। परिवार, समाज और जाति का इंजेक्शन उन्हें गहरे तक असर कर चुका होता है। कुछ एक चान्स लेते है मान गए तो भी ठीक, ना माने तो कर लेगे उनकी मर्ज़ी से। कुछ लड़ जाते है और कुछ हार जाते है। लड़ जानेवाले मुझे पसंद है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि मैं वहीं हूँ। लेकिन, सबसे खतरनाक है चान्स लेनेवाले। ऐसे युवाओं की कोई सोच नहीं होती। ये आधुनिक भी होना चाहते है और पारम्परिक भी। माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करते ही ये अतिपारम्परिक हो जाते है और उसी भेड़ चाल का हिस्सा जिसकी कोई सोच नहीं होती है।
 सच कहूँ तो मैं समाज को, इसकी सोच को, इसके बर्ताव को समझने की बहुत कोशिश करती हूँ। लेकिन, अंत में मुझे कही समाज मिलता ही नहीं है। हर जगह मुझे व्यक्ति और व्यक्तिवादी सोच ही मिलती है। जोकि समाज की दुहाई देते हुए वो कर रही होती है जो वो चाहती है। अंत में मंटो की लेखनी से- समाज को कभी कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं। वो अपने आप में इतना समझदार है कि सब खुद-ब-खुद समझ जाता है। और, अगर ना समझ पाएं तो जाए भाड़ में....

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