Saturday, August 4, 2012

दोस्ती- रिश्ता जो मैंने चुना और बुना...

          कहते है शादी दो व्यक्तियों का नहीं दो परिवारों का मिलन होता है। इस रिश्ते से केवल दो नहीं कई ज़िंदगियाँ जुड़ जाती है। लेकिन, मेरे अनुभव के अनुसार तो दोस्ती भी एक ऐसा ही रिश्ता है। दोस्त जिसे हम खुद चुनते है और इस रिश्ते को अपनी पसंद और अनुभवों के हिसाब से खत्म या आगे बढ़ाते है। दोस्ती में न तो कोई दबाव होता है, न ही कोई तनाव। न तो दोस्त के सामने सुन्दर दिखने की चिंता सताती है और न ही अपनी कमियाँ छुपाने की ज़रूरत नज़र आती है। लेकिन, दोस्ती केवल दो लोगों तक ही सीमित नहीं रहती है। स्कूल में साथ पढ़नेवाले दो बच्चों से शुरु होकर ये भी दो परिवारों के बीच का रिश्ता बन जाती है। मेरी दोनों दोस्त कुछ ऐसी है। मेरी दोस्ती केवल इन तक सीमित नहीं, बल्कि उसके कई आयाम और नाम है।
    नंदिता, बचपन से हम साथ है। शायद ही हमारी ज़िंदगी में ऐसा कुछ हुआ हो जो हमने एक-दूसरे को बताया न हो। हालांकि साथ में हम दोनों ही बहुत कम रहे। कभी मेरे पापा का भोपाल से ट्रान्सफर हो जाता था, तो कभी उसकी मम्मी का। साथ में न रहते हुए भी हम आज तक दोस्त है। एक नबंर की बातूनी, झट से लोगों से दोस्ती कर लेनेवाली नंदिता की दोस्तों की लिस्ट में शायद में अकेली ही हूँ। दिल्ली से भोपाल पहुंचते ही मेरे घरवालों का नंदिता के घर आने का इंतज़ार रहता था। घर में दाल-बाटी बने तो मम्मी नंदिता को पहले ही फोन करवा देती थी। मेरे पापा के कुर्सी-टेबल पर उनकी उपस्थिति में भी बैठने की हिम्मत केवल उसी के पास थी। भैया, जो मेरी ज्यादा बात नहीं सुनता था चुपचाप उसकी बातें सुनता रहता था। मेरे ही घर में मुझे उठकर जो पानी पिला दे क्या वो केवल एक दोस्त है... बाहर घूमना, फिल्म देखना, नंदिता के पसंद की बातें नहीं। लेकिन, जब भी मैं कहती तो वो और उसके मम्मी-पापा दोनों तैयार हो जाते। अरे, दीप्ति जा रही है... तब तो तुम भी जा सकती हो। दोस्ती को गहरी करने में मम्मी-पापा के शब्द सीमेंट का काम कर जाते थे। हम दोनों के बीच की ये दोस्ती कब हमारे परिवारों तक पहुंच गई मालूम ही नहीं चला। ऐसा नहीं कि हम कभी लड़े नहीं, झगड़े नहीं। हम तो इतना लड़े है कि सड़क पर हमारा रोना-गाना शुरु हो जाता था। तय हो जाता था कि अब तो शक्ल भी नहीं देखना है। लेकिन, शाम तक ही या तो वो मेरे घर के आगे खड़ी होती या मैं उसके... हम ये समझे ना समझे लेकिन, हमारे मन ये समझते है कि एक-दूसरे के बिना गुजारा संभव नहीं....
  और, नेहा से जब मेरी दोस्ती हुई तब से लेकर आजतक बिना एक-दूसरे को कुछ जताए, बिना किसी दोस्ती की कसमों के, महीनों तक बिना बातचीत किए, हम साथ है। मैं जिनती मुंहफट हूँ वो उतनी ही सभ्य और समझदार... हमारा यही कॉम्बिनेशन हमारी दोस्ती का सीमेंट है। नेहा के साथ मेरी सबसे ज्यादा बात सड़क किनारे होती थी। वो मेरे घर भले ही दो घंटे बैठी रहे, हम कई तरह की बातें कर ले फिर भी नीचे उतरकर उसकी हीरोपुक के सहारे खड़े होकर आधे घंटे तक बातें करना तो बनता था। नेहा से मेरी दोस्ती केवल उस तक सीमित नहीं रही। आंटी-अंकल से मेरा जुड़ाव या उनका मेरे प्रति प्यार भले ही इस दोस्ती से जन्मा हो लेकिन, आज वो इससे अलग और विशेष है। स्कूल से जिस हक के साथ नेहा के साथ अंकल के स्कूटर पर मैं बैठ कर घर आती थी, वो हक अंकल की आत्मियता ने मुझे दिया था। स्कूल में तो कई लोगों को मैं ही मालवीयजी की बेटी लगती थी। वो आंटी का दोस्ताना रवैया हो या पूजा दीदी को मेरा दीदी बोलना हो। सबकुछ नेहा से जुड़कर भी अकेले मेरा था।
        इन दोनों की दोस्ती ने मुझे दो ऐसे परिवार भी दिए है जिसमें मेरे पास उतने ही हक है जितने की इनके पास है। मैं ये नहीं कहूंगी कि मेरी कोई बहन नहीं है और नंदिता और नेहा ने मेरी ज़िंदगी की ये कमी पूरी कर दी है। ये दोनों मेरी दोस्त है, केवल दोस्त। इन दोनों को बिना किसी दबाव के मैंने चुना है और इन्होंने मुझे... दोस्ती का ये रिश्ता मैंने चुना, बुना और निभाया है... और, मुझे मेरी पसंद पर नाज़ है...

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