Wednesday, January 2, 2013

अंततः कल देखी इंग्लिश-विंग्लिश...


फिल्म को बनाने का मक़सद हालांकि मनोरंजन करना और पैसा कमाना ही होता है लेकिन, कई बार कुछ फिल्में मन को छू जाती है। लगा था इंग्लिश-विंग्लिश भी एक ऐसी ही फिल्म होगी। एक महिला निर्देशक और मुख्य किरदार के महिला होने की वजह से इसका भावनात्मक होना बहुत ही स्पष्ट था। फिल्म में किसी क्रांतिकारी मुद्दे को भी नहीं उठाया गया है। समाज और परिवार में महिला की स्थिति को बस एक भाषा के ज्ञान से जोड़कर दर्शाया गया है। श्रीदेवी के अभिनय की वजह से फिल्म में दम है। माँ को घर में यूँ ही लेना जैसे हरेक घर की कहानी है। मम्मी के दिनभर किए जानेवाले कामों को शून्य मानना या फिर ये मान लेना कि वो तो है ही इसलिए ये भी सामान्य ही है। फिल्म देखकर कई जगह लगता है कि यही तो वो क्षण था जब मैंने भी मम्मी को कुछ यूँ ही जवाब दिया था। लेकिन, शशि की तरह बहुत कम महिलाओं को ये मौक़ा मिल पाता है कि वो खुद को इस तरह साबित कर पाए। उससे भी बड़ी बात ये है कि बहुत कम महिलाएं ऐसी होती है जो ये समझ पाती है कि उनकी भी कोई इज्ज़त है। अपनों के लिए करने में कई बार इंसान अपने आप को ही भूल जाता है। दूसरों के लिए प्यार से करनेवाले व्यक्ति का अधिकांशतः सही मूल्याकंन नहीं किया जाता है। रिश्ते को प्यार से निभानेवाले के प्यार को उसका कर्तव्य मान लिया जाता है। जैसे घर में मम्मी को झाडू लगाते देखना साधारण लगता है और पापा का वही काम करना अजीब लगता है। खैर, इंग्लिश-विंग्लिश की कहानी का मूल मर्मर्स्पशी होते हुए भी उसका क्रियान्वयन बहुत ही साधारण था। महिला का आत्मसम्मान के लिए संघर्ष और अचानक बाहरी दुनिया में उसका आदर बहुत आलोचनात्मक है। हो सकता है कि जो बाहरी दुनिया में उसका सम्मान कर रहे है वो घर की महिलाओं का ना करते हो या हो सकता है कि बाहरी दुनिया में ही कुछ लोग ऐसे मिल जाए जो महिला का सम्मान न करे। कहानी एकतरफा होते हुए भी अभिनय के दम पर सुन्दर हो गई। सम्मान की खोज में घर से बाहर निकली महिला से किसी को प्रेम हो जाना और उस महिला का उस ओर ध्यान भी न जाना बहुत ही परम्परावादी लगा। अंत में फिल्म को सिनेमा हाल में न देख पाने का अफसोस कल उसे टीवी पर देखने के बाद खत्म हो गया। श्रीदेवी के अभिनय के अलावा कुछ संवाद ही है जो अंत तक याद रहे... 

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