Thursday, January 31, 2013

सरकारी घर


दिल्ली के मेरे तीसरी मंज़िल के, बिना किसी वेन्टिलेशनवाले, बिना आंगनवाले घर से मुझे प्यार है। भले ही हर साल मकान मालिक उसका किराया बढ़ा दे और बात-बात पर ये जताते रहे कि ये मकान उनका है... बावजूद इसके मुझे इससे प्यार है। मैं उसे सजाती हूँ। अच्छे से रखती हूँ और सोचती हूँ कि जब भी कोई आए तो उसकी तारीफ़ करके ही जाए। इसके उलट भुवन को इसी घर में कई कमियाँ नज़र आती है। हवा का न आना, आंगन का न होना और हर साल बढ़नेवाला किराया सब कुछ उसे अखरता रहता है। एक साथ, एक घर में रहते हुए, एक-दूसरे को समझते हुए भी, हम इस मुद्दे पर एकदम अलग राय रखते हैं। इसकी वजह भी साफ़ है भुवन ने अपनी ज़िंदगी जिस घर में बिताई है वो उसका खुद का घर था। जिसे माँ-पापा, दीदी और भुवन ने अपने सामने बनावाया और अपने हाथों से सजाया है। उम्र के जिस दौर में इंसान यादें बनाता है उस दौर को भुवन ने उस घर में बिताया है। शायद अपने घर से दूरी का अहसास ही, उसे इस किराए के घर से जुड़ने नहीं देता है। वहीं इसके उलट मैं और मेरा परिवार हमेशा से ही किराए के या सरकारी मकानों में ही रहता रहा। शुरुआती दौर में तो हर दो से तीन साल में पापा का तबादला हो जाता था। कभी हम झाबुआ के सरकारी मकान में रहते जहाँ आगे का दरवाज़ा शहर की ओर था तो पीछे का गांव की ओर खुलता था। हर कोई हमारे घर की दीवार घड़ी में समय देखने आता था। घर के बाजू में बड़ा-सा मैदान जिसमें मैं और भैया खेलते थे। हमारा पर्सनल प्ले ग्राउण्ड था उस शहर में हमारा। वहीं दूसरी ओर रतलाम का सरकारी मकान जो शहर के बीचों-बीच ऑफ़ीसर्स कॉलोनी में था। चारों ओर से क्वार्टर्स से घिरा हुआ। देवास का क्वार्टर कुछ अलग था, तो रायपुर का अंग्रेज़ों के ज़माने का बना हुआ और भोपाल का कुछ और। हर घर पापा को सरकारी मकान के रूप में मिलता और हम उसे अपना घर बना लेते थे। उससे रिश्ता जोड़ लेते। और, इसी बीच पापा का तबादला हो जाता और हम किसी नए शहर, नए घर में पहुंच जाते। कभी आंगन मिलता, कभी नहीं मिलता। कभी बहुत सारे दोस्त बन जाते। कभी मैं और भैया अकेले ही खेलते रह जाते। शायद सरकारी घरों में रहकर बड़े हुए बच्चे को मकान को घर बना लेने की कला अपने आप ही आ जाती है। घर, आंगन, कमरा, पड़ोसी, दोस्त किसी के छूटने का ग़म वो नहीं करते। जहाँ जाते हैं वहीं रम जाते हैं। ऐसे में भुवन और मेरी सोच के बीच हमारा किराए का ये घर कभी बहुत सुन्दर और अपना हो जाता है, तो कभी इतना पराया कि दुखी कर जाता है। 

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