दिल्ली जैसे शहर में रहकर और मैट्रो ट्रैन की
सवारी करके हम सभी कुछ ज्यादा ही सफ़िस्टिकैटड होते जा रहे हैं। आपस में बात करना,
मदद के लिए आगे आने या फिर बस नज़रें टकराने पर मुस्कुरा देना। कम से कम मुझे ऐसा
कुछ भी देखने को नहीं मिलता है। दिखाई देता है तो महिला कोच की महिलाओं का ज़रा सी
ऊँची आवाज़ पर भौंहे चढ़ा लेना। हालांकि मदद के लिए खड़े हो जाना या फिर एडजस्ट कर
लेना अभी भी बाक़ी है। खैर, बात सफ़िस्टिकैटेड होने की। कल मैट्रो में एक आण्टीजी
सभी के आकर्षण का केन्द्र थी। उनका चेहरा पूरा जला हुआ था। हरेक लड़की उनकी ओर
देखकर अपना चेहरा एक बार ज़रूर सहला चुकी थी। आण्टीजी चुपचाप थी लेकिन, अचानक ही
उनकी एक दोस्त ट्रैन में चढ़ी। लड़की युवा थी और सुन्दर भी। आण्टीजी पूरी लय में
और सुर में बात कर रही थी। उनकी ऊँची आवाज़ से सहयात्रियों की भौंहे चढ़ना शुरु हो
चुकी थी। बातचीत से मालूम चला कि वो लड़की और आण्टी एक ही योग सेन्टर में जाते
हैं। आंटी लड़की से अपनी त्वचा के बारे में बात कर रही थी। मालूम चलाकि उन्हें
सनबर्न और पिग्मेन्टेशन हो गया है और वो इलाज करवा रही है। लड़की उन्हें समझा रही
थी कि वो अब ठीक लग रही है। इसी बीच आंटी ने बैठी हुई लड़कियों से कहा कि जो भी
उठे उन्हें बता दे। उनके पैरों में दर्द रहता है। कुछ लड़कियाँ अचानक हड़बड़ाकर
उठने लगी तो उन्होंने हंसते हुए कहा- अरे, बैठो बेटा लोग, हम जानते है कि तुमको भी
ऑफिस जाकर दस घंटे काम करना है। जब उठो तब बता देना। कोच की हरेक यात्री अपने में
मग्न होकर भी आंटी की ओर आकर्षित थी। वो अपनी तेज़ आवाज़ में बातें किए जा रही थी।
दामिनी पर लिखी कविता ज़ोर-ज़ोर से सुना रही थी और अचानक ही हमारी ओर देखकर पूछ भी
रही थी कि मैं परेशान तो नहीं कर रही हूँ। किसी के मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था।
हर कोई एफ़एम की आवाज़ों या किताबों से ध्यान हटाकर उनकी बातों पर कान लगा चुकी
थी। पूरा महिला कोच उनकी आवाज़ और हंसी से गूंज रहा था। धीरे-धीरे कुछ लड़कियां
उनकी बातों पर मुस्कुराने लगी, कुछ बातें करने लगी, तो कुछ सुनने लगी। अचानक ही
मैट्रो की वो महानगरीय सवारियाँ सफ़िस्टिकैटेड होना भूल सामान्य हो चली थी...
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